शैल चित्र की प्राचीन कला शैली से परिचित होंगे भारत के चित्रकार, BHU के वैज्ञानिक हेमेटाइट पत्थर की करेंगे खोज

यूपी के वाराणसी में प्राचीन काल के चित्रकला इस्तेमाल होने वाले तकनीक को फिर जीवंत करने के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने शोध किया है। बता दें कि शिक्षा मंत्रालय ने BHU के दो वैज्ञानिकों को यह प्रोजेक्ट सौंपा है।

अनुज तिवारी

वाराणसी: उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्राचीन काल के चित्रकला इस्तेमाल होने वाले तकनीक को पुनः जीवंत करने के लिए शोध किया है। वहीं भारत सरकार ने भी इस शोध को करने के लिए अपनी मंजूरी दे दी है। BHU के दो वैज्ञानिकों को शिक्षा मंत्रालय ने यह प्रोजेक्ट सौंपा है। जिस पर जियोलॉजी विभाग के प्रो. चलापति रॉव और पुरातत्व विभाग के डॉ. सचिन तिवारी काम कर रहे हैं। इस प्रोजेक्ट को 2 साल में पूरा किया जाना है। बीएचयू के वैज्ञानिक इन 2 सालों में यूपी बिहार के बिंद क्षेत्र स्थित क्षेत्रों में रंग निर्माण की पद्धति आखिर क्यों लुप्त हो रही है इस पर भी शोध करेंगे। 

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विलुप्त कला चित्रों की कर रहे तलाश
इस शोध पर काम कर रहे पुरातत्व विभाग के डॉक्टर सचिन तिवारी ने बताया हमारे रिसर्च की पहली खोज को भले ही बोलचाल की भाषा में चित्रकला कहा जाता है। लेकिन उसे वैज्ञानिक शैल कला कहा जाता है। उन्होंने बताया कि आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में यह कलाएं विलुप्त है इन्हीं कला चित्रों को वह तलाश रहे हैं। भारत सरकार ने शिक्षा मंत्रालय की शाखा इंडियन नॉलेज सिस्टम की तरफ से यह प्रोजेक्ट दिया है। डॉ. सचिन तिवारी ने बताया इस शोध के जरिए वह जानने की कोशिश करेंगे कि किन रंग का प्रयोग किया गया है। उन्होंने बताया कि विशेष रूप से वह पत्थर का रंग लाल होता है। लाल रंग जिस पत्थर से बनता है उसे हेमेटाइट कहते हैं।

पुरानी परंपरा को फिर से जीवित करने की कोशिश
डॉक्टर तिवारी ने कहा कि हेमेटाइट की वैरायटी 20 से ऊपर है। शोध के दौरान यह पता किया जाएगा कि किन पत्थर का प्रयोग करके रंग का निर्माण किया गया। साथ ही अगर किसी विशेष रंग का प्रयोग किया गया तो उस रंग का प्रयोग क्यों किया गया है। उस दौरान मानव द्वारा प्रयोग किए जाने वाले विशेष प्रकार के हेमेटाइट की जानकारी हासिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आज के युवाओं में पेंटिंग को लेकर काफी उत्साह और जागरुकता देखने को मिलता है। इस बात से सभी भलीभांति परिचित हैं। भारत में भी ऐसी हजारों वर्ष पुरानी पेंटिंग हैं। ऐसे में यदि हम यह जान सके कि प्रारंभिक काल में हमारे पेंटिंग के माध्यम क्या थे और वह जो लंबे वर्षो से लेकर आज तक सुरक्षित है। तो हम उस परंपरा को पुनः जीवित कर सकते हैं।

हेमेटाइट को रंग के रूप में किया जाता था प्रयोग
वैज्ञानिकों के अनुसार, शहरों में तमाम आयोजनों में पेंटिंग बनाई जाती है। यदि इनका अविष्कार और खोज एक बार पुन: जीवित हो जाएं तो एक ही खर्च में ऐसी कई पेंटिंग बनाई जा सकती है। साथ ही यह पेंटिंग वर्षों तक वैसी ही बनी रहती हैं। अगर ऐसी खोज होती है तो फिर कारखाने से बने कलर की जरूरत नहीं होगी। इस खोज से यह भी पता चल जाएगा कि हमारे पहाड़ों में ऐसे कई तरह के पत्थर हैं। जिनसे कलर का निर्माण किया जा सकता है। इसके जरिए हम अपने धूमिल हो रही परंपरा को बचा सकते हैं। 2 साल के शोध में जो भी पता चलेगा उसे समाज के सामने लाया जाएगा। वैज्ञानिकों की मानें तो प्राचीन लोग हेमेटाइट को रंग के रूप में उपयोग करते थे। हेमेटाइट पत्थर को अगर थोड़ा रगड़ा जाए और उसका महीन पाउडर बना लिया जाए तो उसका लाल रंग में प्रयोग किया जा सकता है। दावा किया गया है कि हेमेटाइट प्राचीन चित्रकला के प्रमुख स्रोतों में से एक था।

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