पंकज त्रिपाठी(Actor Pankaj Tripathi) आज किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वे खुद मानते हैं जब पहली बार अपना पासपोर्ट रिन्युवल कराने गए थे, तब अखबार में छपी अपनी छोटी-छोटी खबरें साथ ले गए थे, अगर कोई अधिकारी पूछे, तो बता सकें कि वे अभिनेता हैं। लेकिन आज वे प्रसिद्धि के मुकाम पर हैं। पढ़िए hindi.asianetnews.com से उनका विभिन्न मुद्दों पर exclusive इंटरव्यू...
बॉलीवुड डेस्क(अमिताभ बुधौलिया). वर्ष, 2004 में आई फिल्म रन और फिर 2006 में ओमकारा में किचलू जैसा छोटा-सा किरदार निभाने वाले पंकज त्रिपाठी आज OTT प्लेटफार्म से लेकर बड़े पर्दे तक सब में छाये हुए हैं। यह दिलचस्प है कि शुरुआत में टीवी-फिल्म से लेकर विज्ञापन तक में पंकज त्रिपाठी को निगेटिव शेड ही मिले। लेकिन फिर उनके करियर में टर्निंग पॉइंट आया और निल बटे सन्नाटा, न्यूटन, बरेली की बर्फी, फुकरे रिटर्न, स्त्री, लुकाछुपी, कागज,मिमी, बंटी और बबली जैसी फिल्मों में ऑर्गेनिक एक्टिंग के बूते उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली। वहीं, गुंजन सक्सेना, 83, मसान में अपने अभिनय की एक नई पाठशाला खोली, तो मिर्जापुर के जरिये फिर साबित किया कि उनसे कुछ भी कराया जा सकता है। पढ़िए hindi.asianetnews.com से उनका विभिन्न मुद्दों पर exclusive इंटरव्यू...
'धर्म' फिल्म से लेकर ओह माय गॉड-2(OMG-2) तक का सफर कैसा रहा, कितना बदलाव आया है?
तब मुझे समझ नहीं आता था कि कैमरे में शूटिंग कैसे हो रही है। तब मुझे टेक्निकली कुछ भी ज्ञान नहीं था। ये जो मैं कर रहा हूं, वो कैसा दिखेगा, कितना दिखेगा। इसको कैसे करना चाहिए। मतलब, बच्चा जब पहली बार स्कूल गया, तो पहले दिन-दूसरे दिन उसके हाथ में ककहरा की किताब दे दी गई, तो उसको तो समझ ही नहीं आता कि उसका जीवन में क्या उपयोग है? अब जब शूटिंग पर जाता हूं, तो डीओपी (Director Of Photography) बोलता है कि यार 85 का लैंस लाओ, तो समझ आता है कि ये कैसा दिखेगा, कितना देखेगा, ये क्या हो रहा है? अब हम तकनीकी रूप से समृद्ध हो गए हैं, तकनीक रूप से समझ आ गई बहुत। धर्म के वक्त हम खोजते थे कि फिल्में कहां बनती हैं, कैसे उनमें काम पाया जा सकता है। अभी फिल्में खोजती हैं कि पंकज त्रिपाठी का कौन-सा डेट खाली है। बस यही अंतर आया है और कुछ खास अंतर नहीं आया है।
आपके किरदारों में दबंगई और पॉलिटिशियन की पर्सनॉलिटी दिखती रही हैं, आप कादर खान और शक्तिकपूर के ट्रैंड पर दिखते हैं, आपको क्या फील होता है?
देखिए दोस्त, अब सिनेमा का दूसरा दौर चल रहा है। अभी कोई भी अभिनेता; मैं ही नहीं, एक इमेज में नहीं बंध रहा है कि ये कॉमेडी करते हैं या ये विलेन का रोल करते हैं या ये हीरो हैं। अब नाना प्रकार की फिल्में बनती हैं। जब एक कर्मिशयल, एक मसाला, एक फॉर्मूला फिल्में बनती थीं, तब एक हीरो-एक हीरोइन, एक विलेन होते थे और एक कॉमेडियन होते थे। अभी तो वो है ही नहीं। अब तो विलेन भी ह्यूमर वाला हो सकता है और हीरो भी निगेटिव किरदार का हो सकता है। तो अभी तो कहानियां बदली हैं।...और मैंने ट्रेंड कुछ भी नहीं पकड़ा है। मैं तो बड़ा ऑर्गेनिक व्यक्ति हूं। मैंने करियर नहीं बनाया हूं। पता नहीं ईश्वर ने बनाया है, दर्शकों ने बनाया है। जो कहानी मुझे लगती है कि इससे जुड़ जाना चाहिए, उससे जुड़ जाता हूं।
सबसे करीब फिल्म कौन-सी रही, जिसे जी कर संतुष्टि मिली?
मुझे मेरी सब फिल्में और किरदार पसंद हैं। किसी कारीगर से पूछिए कि तुम्हारी बनाई कलाकृति में कौन-सी सबसे अधिक पसंद है, तो कहना मुश्किल है। हम सब तन्मयता और ईमानदारी से बनाते हैं। कुछ को बाजार या दर्शक पसंद कर लेते हैं, पॉपुलर हो जाते हैं। कुछ आइटम पॉपुलर नहीं होते हैं, लेकिन वो उतने ही दिल के करीब होते हैं हमारे बतौर कलाकार। अभी मेरे दिल के करीब आने वाली 2-3 फिल्में हैं। OMG-2, शेरदिल। क्योंकि इनमें कुछ सेग्मेंट करने का प्रयास किया हूं और बड़ी सुंदर कहानियां हैं। इनके लिए उत्सुकता बनी हुई है कि लोग इन्हें कैसे लेंगे।
मिर्जापुर ने एक ट्रेंड दिया, कालीन भैया ने आपको एक अलग मुकाम दिया
मिर्जापुर में क्या है, मैं अभिनेता तो पहले ही जैसा था, बस उसने मुझे सेंट्रल किरदार दिया और पोस्टर-होर्डिंग लगा दिए। तो क्या है, उसकी वजह से उस किरदार की रीच बहुत बड़ी हो गई। बेशक यह लोगों ने पसंद किया कि कुछ इंस्ट्रेस्टिंग इलिमेंट है कालीन भैया में।
पहली बार सोनी के सीरियल 'पाउडर' को लेकर होर्डिंग लगे थे, मिर्जापुर तक कितना अंतर आ गया?
बहुत अंतर आ गया। मैं कल अपनी पुरानी फाइलें खोल रहा था। मेरे घर एक बच्चा आया हुआ था। मैंने उसको 5-6 अखबारों की कतरनें दिखाईं। 15-20 साल पहले मेरे बारे में लिखा गया था। उनको मैंने कटिंग करके रखा था। हां, वो फाइल में पासपोर्ट के रिन्यूवल के लिए खोज रहा था। तो मैंने उसको दिखाया, जिन अखबारों की कतरनों को मैंने चिपका कर रखा था। 10 साल जब पहले जब मुझे अपना पासपोर्ट रिन्युवल कराना था, मैं पासपोर्ट ऑफिस गया, तो सारी कतरनें लेकर गया था। वहां के अधिकारी को दिखा सकूं। क्योंकि अगर मैं कहूंगा कि अभिनेता हूं, तो शायद वे मेरी बात मानें नहीं, इसलिए कतरने दिखाऊंगा कि देखिए मैं एक्टर हूं। मेरे बारे में यहां लिखा है, मेरी तस्वीर भी है। अब मैं उसे( बच्चे) को बोल रहा था कि अब कितने अखबारों में छपता है, अब मैं भी ट्रैक नहीं कर पाता हूं। मुझे पता भी नहीं है। अनुमान भी नहीं है। अब मुझे पासपोर्ट या अन्य किसी दफ्तर में बताने की जरूरत भी नहीं है। जो लोग फिल्में नहीं भी देखते हैं, उन्होंने स्मार्ट फोन पर, यूट्यूब पर किसी और मीडियम पर मेरा काम देख ही लिया है। चाहे विज्ञापन फिल्में ही सही। अब मेरा चेहरा अनजाना नहीं रहा। पहले जद्दोजहद थी कि मैं अभिनेता हूं, पर कोई कैसे मानेगा?
बॉलीवुड दो ध्रुवों(पॉलिटिकल ट्रेंड) में बंटा दिखता है, उसका कला पर क्या असर पड़ रहा?
मैं चुनाव आयोग का आदमी हूं। मैं आइकन हूं। मेरा काम चुनाव ठीक-ठाक कराना है। मैं सिर्फ काम करता हूं। बाकी मेरा किसी भी विचारधारा से, किसी भी खेमे से न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। हायरार्की(Hierarchy-पदानुक्रम) मेरे लिए इम्पोर्टेंट है। बड़ा आदमी, छोटा आदमी...सब आदमी हैं पहले, बाद में ये छोटा-बड़ा होगा या वो भी नहीं होगा। इसलिए मेरे सबसे मधुर संबंध हैं। मैं सबको उतना ही सम्मान देता हूं और सब वो मुझे भी देते हैं। मैं बस काम करता हूं, घर आता हूं। मैं मुंबई शहर से भी दूर रहता हूं थोड़ा।
देश में किसान एक बड़ा मुद्दा है, कैसे सुधार संभव?
समस्या यह है कि हिंदी सिनेमा का एक अभिनेता जो किसान परिवार से आता है, वो क्या क्या किसानी को लेकर अपनी राय देगा? मैं 20 सालों से सिर्फ अपने खेत को देखना जाता हूं बस। मैं जाता हूं और खेतों को देखकर आ जाता हूं। अभी ठीक से याद भी नहीं कि मेरे किस खेत में क्या खेती हो रही है। ज्यादातर खेती बंटाई पर है। लेकिन हां, मैं खेती नहीं कर रहा हूं, पर खेती मुश्किल काम तो है अभी। पिछले हफ्ते ओले पड़े हैं, अब खत्म हो जाएगी सरसों। किसानी बेहद चुनौतीभरा काम है। उसमें नेचर का भी उतना ही सहयोग चाहिए, उसका सरकारों का भी उतना ही सहयोग चाहिए, उसमें संस्थाओं का भी उतना ही सहयोग चाहिए। उसमें इंडिविजुअल(व्यक्ति विशेष) का सहयोग भी उतना ही चाहिए। लेकिन चीजें हो रही हैं। आजकल आए दिन खबरें मिलती हैं कि कोई आईटी सेक्टर का आदमी शहरों की नौकरी छोड़कर गांवों में आर्गेनिग फॉर्मिंग करने लगा। तो लोग रिवर्स बैक कर रहे हैं, नेचर की तरफ जा रहे हैं। या देख रहे हैं कि सिर्फ पैसे से अनाज नहीं मिलता है, अनाज पैदा होता है। मुझे लगता है कि स्थितियां और ठीक होंगी।
पंकज त्रिपाठी क्या भविष्य में राजनीति में आएंगे?
कल किसने देखा है दोस्त! मुझे नहीं लगता कि मेरे जैसे लोग राजनीति में आएंगे भी, तो ज्यादा देर टिक पाएंगे।
देश में क्या बदलाव देख रहे हैं?
देश में ही नहीं सारी दुनिया में बदलाव दिखेगा। आप सोशल मीडिया पर देखेंगे, तो तहलका मचा हुआ है। रियलिटी में देखोगे, तो उतना कुछ नहीं है। सब जगह सामान्य है। सोशल मीडिया पर क्या है कि हर हाथ में स्मार्ट फोन है, हर आदमी के पास एक ओपिनियन है। हर कोई कुछ न कुछ कहना चाहता है, तो वहां कोलाहल है। वैसे देखें, तो ऐसा कुछ कोलाहल नहीं है। बहुत स्थितियां साधारण-सामान्य ही लगती हैं। पिछले 2 सालों से कोविड महामारी में पूरा संसार पड़ा हुआ है। हां, जो एक चेंजेज मैंने देखा है कि वो सोशल मीडिया पर देखा है। हर कोई बहस करने में लगा है। पहले देश कृषि प्रधान देश था, आज आहत प्रधान देश हो गया है। उसके बाद क्रिकेट प्रधान देश हो गया है। फिर सिनेमा प्रधान हो गया है। हमारी भावनाएं आहत होती हैं। कई बार हम लोगों को देखते हैं कि फिल्में पसंद नहीं आईं, तो क्रोध में सोशल मीडिया पर ऐसे लिखते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा चीटिंग हो गया इनके साथ। चलो मान लीजिए 300 रुपए का टिकट और 3 घंटे बबार्द हुए। भगवान ने जो कान दिया है, वो दिमाग के ठीक पास है। थोड़ा दिमाग से सोचो और उसके बाद बोलो, क्योंकि मुंह उसके नीचे है। लेकिन हम जो सुनते हैं, बोलने लगते हैं। मैं कान में सुनकर पहले सोचने की कोशिश करता हूं, फिर सोचता हूं कि इस पर बोलना चाहिए कि नहीं।
इलेक्शन के दौर में किसी पार्टी ने कोई अप्रोच की?
नहीं, नहीं, मैं चुनाव आयोग का स्टेट आइकन हूं बिहार का। तो मैं चुनाव जागरुकता अभियान से जुड़ा हुआ व्यक्ति हूं। मुझे ऐसे ही कोई रुचि नहीं है इलेक्शन में।
asianetnews हिंदी के जरिये कोई मैसेज
मैं अभी नार्थ-ईस्ट में शूटिंग कर रहा था। तो चुनाव आयोग से मैसेज आया कि 1 जनवरी तक जो लोग 18 साल के हो गए हों, उनका अभियान के एक वीडियो बनाना है। मैं दिनभर फॉरेस्ट में शूटिंग करता था और सुबह उठकर वीडियो बनाता था, मोबाइल से। मैं लगा हुआ हूं कि जागरुकता तो मतदाताओं में आना ही चाहिए। बहुत बड़ा अधिकार है मताधिकार। बहुत विवेकपूर्ण होकर उसका प्रयोग करें। किसी भी प्रकार के लोभ-लालच में न फंसें और निष्पक्ष होकर वोटिंग करें। लोकतंत्र ही एक मात्र तरीका है, जिससे संसार चल रहा है।