
एक तरफ परमाणु शक्ति वाला पाकिस्तान है, तो दूसरी तरफ तालिबान, जिसके पास लड़ाकों के अलावा कुछ नहीं। पुराने अफगान सैनिकों के छोड़े आधे हथियार कहां गए, ये तो तालिबान को भी नहीं पता। जो हैं भी, उन्हें चलाने की ट्रेनिंग नहीं है और मरम्मत के लिए पैसे भी नहीं। लेकिन इन दोनों की लड़ाई में, कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, पाकिस्तान ने ही पहले कदम पीछे खींचे। दोनों के बीच की दुश्मनी बहुत पुरानी है और इतनी जल्दी खत्म नहीं होगी। रिपोर्ट्स हैं कि चीन को इस लड़ाई में भारत की भूमिका पर शक है। तालिबान के विदेश मंत्री का भारत दौरा इस शक की एक वजह हो सकता है। वैसे, इस दौरे ने पाकिस्तान की नींद जरूर उड़ा दी है।
अभी तो शांति है, लेकिन यह एक बेचैन करने वाली शांति है। अफगान-पाक संघर्ष-विराम के बाद यही हाल था। लड़ाई 15 तारीख को शुरू हुई थी। पाकिस्तान ने तो लड़ाकू विमान तक उतार दिए। वहीं, तालिबान ने पाकिस्तानी सैनिकों की भागते हुए छोड़ी गई पैंट और बंदूकें दिखाकर जश्न मनाया। दोनों ने दावा किया कि वे ही आगे थे। सच क्या है, यह साफ नहीं है। अफगानिस्तान ने कहा कि पाकिस्तान ने संघर्ष-विराम की गुजारिश की, जबकि पाकिस्तान का कहना है कि इसका उल्टा हुआ। दोनों ने यह भी नहीं माना कि कोई बिचौलिया था, हालांकि कतर और सऊदी का नाम सुनने में आया।
1893 में बनी डूरंड लाइन (Durand Line) के दोनों तरफ हमेशा से तनाव रहा है। यह वो लाइन है जो तब ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान के बीच खींची गई थी। अफगानिस्तान को यह तब भी पसंद नहीं थी। इसकी एक वजह उस इलाके में रहने वाले पश्तूनों का विरोध था। उनका कहना था कि इस लाइन की वजह से वे बॉर्डर के इस पार और उस पार बंट जाएँगे। लेकिन, भारत में ब्रिटिश शासकों ने इन आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया और बॉर्डर बना दिया। अफगानिस्तान के ब्रिटिश-समर्थक अमीर ने इसे मान लिया, लेकिन बाद में आई किसी भी अफगान सरकार ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसे औपनिवेशिक काल का समझौता कहकर खारिज कर दिया।
इसी वजह से डूरंड लाइन पर तनाव कभी खत्म नहीं हुआ। पश्तूनों की नाराजगी बीच-बीच में भड़कती रही। सिर्फ यही नहीं, साम्राज्यों की आपसी खींचतान में भी डूरंड लाइन एक मुद्दा बनी रही। ऊपर से घुसपैठ और हमले पाकिस्तान के लिए सिरदर्द बन गए। पाकिस्तान का दावा है कि इसके पीछे पाक तालिबान, यानी तहरीक-ए-तालिबान (Tehrik-e-Taliban) है। TTP नेताओं का ठिकाना अफगानिस्तान है। TTP के सदस्य अफगान-पाकिस्तान सीमा के कबायली इलाकों के रहने वाले हैं।
पाकिस्तान ने सोचा था कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार आने के बाद घुसपैठ और हमले बंद हो जाएँगे। लेकिन, ऐसा भी नहीं हुआ। TTP का कहना है कि जब तक सीमा क्षेत्र में उन्हें स्वायत्तता नहीं मिल जाती, वे लड़ते रहेंगे। तालिबान TTP से पंगा नहीं लेगा। एक तरह से वे सहयोगी हैं। तालिबान को लगता है कि TTP से लड़ने पर इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान (Islamic State of Khorasan) को फायदा होगा। तालिबान का आरोप है कि पाक-अफगान सीमा पर ISIS को पाकिस्तानी सेना ही पाल-पोस रही है।
भले ही सैन्य ताकत पाकिस्तान के पास ज़्यादा हो, लेकिन अमेरिका जैसी महाशक्ति को भी पीछे धकेलने का आत्मविश्वास तालिबान का हौसला बढ़ाता है। जब पाकिस्तान के साथ लड़ाई तेज़ हुई, तब तालिबान के विदेश मंत्री भारत में थे। पाकिस्तान को यह पसंद नहीं कि भारत, अफगानिस्तान के साथ रिश्ते बना रहा है। एक पक्ष का मानना है कि तालिबान के पास भी कुछ तुरुप के पत्ते हैं। रिपोर्ट्स हैं कि पाकिस्तान के ही इस्लामी राजनीतिक दलों की तालिबान में दिलचस्पी है, लेकिन वे लड़ाई नहीं चाहते। संक्षेप में, इस मुद्दे के कई पहलू हैं। भले ही यह अभी शांत हो गया हो, लेकिन आगे भी धमाकों की उम्मीद करनी चाहिए। भले ही दोनों देश एक और युद्ध का बोझ न उठा सकें, क्योंकि आखिर यह एक युद्ध है।
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