35 साल पहले श्रीलंका में अपनी सेना भेजने का दर्द अब तक नहीं भूला भारत, जानें क्या है पूरा मामला

आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका में प्रदर्शनकारियों ने वहां के राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। इसी बीच राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को अपना आधिकारिक निवास छोड़कर भागना पड़ा। बता दें कि श्रीलंका में 1987 में भी संघर्ष के हालात बने थे। तब भारत ने अपनी सेना भेजी थी। हालांकि, इससे भारत को ही नुकसान हुआ था। 

Ganesh Mishra | Published : Jul 12, 2022 10:13 AM IST / Updated: Jul 12 2022, 03:45 PM IST

Sri lanka Crisis: श्रीलंका में चल रहे आर्थिक संकट के बीच प्रदर्शन कर रही जनता ने वहां के राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। इसी बीच वहां के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति भवन छोड़कर भागना पड़ा। खबर आई कि श्रीलंका में बिगड़े हालात के बीच भारतीय सेना मदद के लिए वहां पहुंची है। हालांकि, भारतीय उच्चायोग ने फौरन ही ट्वीट कर इस खबर का खंडन किया और साफ कहा कि भारतीय सेना श्रीलंका में नहीं है। बता दें कि 35 साल पहले भी श्रीलंका में हालात बिगड़े थे और तब 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारतीय सेना भेजी थी। हालांकि, इसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा था। 

दरअसल, श्रीलंका में सेना भेजने का उद्देश्य वहां की सरकार और लिट्टे (LTTE) के बीच झगड़े को शांत कराना था। लेकिन वहां लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण ने अपने लड़ाकों को भारतीय सेना के खिलाफ उतार दिया था। श्रीलंका में करीब 32 महीने तक चले गतिरोध के बाद भारतीय सेना को वहां से लौटना पड़ा था। इस दौरान श्रीलंका की सेना ने तमिल लोगों और लिट्टे के खिलाफ जमकर एक्शन लिया। बाद में लिट्टे समर्थकों ने श्रीलंका में भारतीय सेना भेजने की वजह से आत्मघाती हमला कर राजीव गांधी की हत्या कर दी थी। 

सिंहली और तमिलों के बीच संघर्ष से बना लिट्टे : 
श्रीलंका में वहां के मूल निवासियों सिंहली और श्रीलंकाई तमिलों के बीच शुरुआत से ही जातीय संघर्ष रहा। सिंहलियों का कहना था कि तमिल लोग उनके संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं। इसको लेकर दोनों के बीच कई बार लड़ाई हुई। 1948 में अंग्रेजी राज खत्म होने के 8 साल बाद 1956 में वहां की सरकार ने 'सिंहला ओनली एक्ट' लागू कर दिया। इस एक्ट के जरिए तमिल की जगह सिंहली भाषा को ऑफिशियल दर्जा मिल गया। इसके बाद तमिलों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई। इसी बीच 1976 में वेलुपिल्लई प्रभाकरण के नेतृत्व में लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) संगठन बना।

लिट्टे ने तमिलियंस के लिए की अलग देश की मांग : 
लिट्टे ने तमिल लोगों के लिए अलग देश की मांग उठाई। इसी बीच, 1983 में लिट्टे समर्थित लड़ाकों ने 13 श्रीलंकाई सैनिकों की हत्या कर दी। इसके बाद श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी। इस हिंसा में 3 हजार से ज्यादा तमिल लोगों की हत्या कर दी गई। ऐसे में लिट्टे ने तमिलियंस की भावनाओं का फायदा उठाते हुए उन्हें ज्यादा से ज्यादा अपने संगठन में शामिल कर लिया। 

लिट्टे और श्रीलंकाई सेना आ गई आमने-सामने : 
लिट्टे का बढ़ता वर्चस्व देख 1987 में श्रीलंका की सेना ने उन्हें रोकने के लिए हवाई हमले शुरू कर दिए। इस हमले में तमिल आबादी वाले जाफना में कई निर्दोष नागरिक भी मारे गए। ऐसे में भारत सरकार ने श्रीलंका से तमिलों के खिलाफ हिंसा रोकने की अपील की। लेकिन श्रीलंका की सरकार ने इसे हल्के में लिया। इसके बाद भारत ने जून 1987 में जाफना के तमिलों के लिए समुद्र के रास्ते मदद भेजी, लेकिन श्रीलंका की नौसेना ने इसे रोक दिया।

भारत के एक्शन से श्रीलंका सरकार समझौते को हुई राजी : 
भारत की तमिलों को पहुंचाई गई मदद से श्रीलंका की सरकार दबाव में आ गई और वो लिट्टे के साथ समझौता करने को राजी हो गई। दोनों के बीच भारत सरकार मध्यस्थ की भूमिका में थी। भारत का मकसद श्रीलंका के तमिलों को सुरक्षा दिलाना था। लेकिन लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन इससे खुश नहीं था। वो हर हाल में तमिलों के लिए आजाद देश चाहता था। बाद में उसे दिल्ली बुलाया गया, जहां राजीव गांधी से बातचीत के बाद वो इस शर्त पर मानने को तैयार हुआ कि उसे श्रीलंका की सरकार में अहम रोल दिया जाए। इसके बाद जुलाई, 1987 में दोनों पक्षों में शांति समझौता हो गया। 

भारत ने भेजी सेना, लेकिन लिट्टे से जंग में फंसे सैनिक : 
शांति समझौते के मुताबिक श्रीलंका की सेना और लिट्टे जाफना में लड़ाई रोकने के लिए मान गए। इस दौरान वहां शांति व्यवस्था बनाए रखने का काम भारत ने अपने जिम्मे लिया। इसके लिए भारत से करीब 80 हजार सैनिकों को श्रीलंका भेजा गया। भारतीय सेना का काम लिट्टे समर्थकों को सरेंडर कराना था। लेकिन इसी बीच लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण ने न सिर्फ शांति समझौता मानने से इनकार कर दिया बल्कि भारतीय सैनिकों पर हमला भी बोल दिया। रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिज ने राज्यसभा में बताया था कि श्रीलंका में लिट्टे के हमलों में 1165 जवानों को बलिदान देना पड़ा था। करीब 32 महीने तक भारतीय सेना और लिट्टे के बीच लड़ाई चलती रही और बाद में भारत ने अपनी सेना को वापस बुला लिया था। हालांकि, इस संघर्ष में लिट्टे को भारी नुकसान पहुंचा था। 

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