
अतीत के सबसे बुरे दौर के बारे में पूछने पर हर किसी के जहन में सबसे पहले कोविड-19 महामारी का समय ही आएगा। यह सच है कि उस समय हमने ऐसी चुनौतियों और नुकसानों का सामना किया था, जिनका अनुभव हमें अपनी दूर की यादों में भी नहीं था। लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि मानव इतिहास में इससे भी भयानक साल गुजरे हैं। वह साल 1349 का ब्लैक डेथ नहीं था और न ही 1918 का फ्लू महामारी था, जिसमें 5 से 10 करोड़ लोगों की जान गई थी। इतिहासकार 536 ईस्वी को इतिहास का सबसे बुरा साल बताते हैं।
536 ईस्वी में, यूरोप, मध्य पूर्व और एशिया के कुछ हिस्सों में एक अजीब और भयानक कोहरा छा गया था। History.com की रिपोर्ट के अनुसार, यह कोहरा 18 महीने तक छाया रहा और इसने धरती पर भयानक अंधेरा कर दिया। इस असामान्य कोहरे के कारण दिन में भी सूरज दिखाई नहीं देता था, जिससे धरती का तापमान गिर गया। इसकी वजह से फसलें नष्ट हो गईं और भुखमरी और महामारियों के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो गई। वास्तव में, 536 ईस्वी एक काला युग था।
सूरज को भी ढक लेने वाले इस भयानक कोहरे का कारण एक ज्वालामुखी विस्फोट था। 2018 में एंटिक्विटी जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, 536 की शुरुआत में हुए आइसलैंडिक ज्वालामुखी विस्फोट से निकली राख ही सूरज को ढकने वाले कोहरे जैसी घटना का कारण बनी थी। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह विस्फोट दुनिया की जलवायु को पूरी तरह से बदलने के लिए काफी था। जलवायु परिवर्तन के साथ आई महामारियों और अकाल ने लाखों लोगों की मौत का कारण बनी।
शोधकर्ताओं का कहना है कि 535 के अंत या 536 की शुरुआत में हुए उस बड़े ज्वालामुखी विस्फोट के बाद 540 में एक और विस्फोट हुआ। इन दोनों विस्फोटों का नतीजा भीषण ठंड और दिन-रात का फर्क मिट जाना था। एशिया और यूरोप में 35-37°F तापमान वाली गर्मी पड़ी। चीन में तो गर्मियों में बर्फबारी भी हुई थी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर माइकल मैककॉर्मिक के अनुसार, यह धरती पर मानव जीवन का सबसे बुरा दौर था। 1815 में इंडोनेशिया में माउंट तम्बोरा ज्वालामुखी फटने से भी ऐसी ही तबाही मची थी, लेकिन 536 जितनी समस्याएँ उससे भी पैदा नहीं हुई थीं।
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