सार

नीतीश के खिलाफ जिस तरह का माहौल था उसमें आखिर गलती कहां हुई जो तेजस्वी पिछड़ गए? ध्यान से देखें तो पांच बड़ी गलतियों ने तेजस्वी की मेहनत पर पानी फेर दिया।

पटना। बिहार चुनाव में आरजेडी के हिस्से की खुशी छोटी उम्र वाली साबित हुई। 7 नवंबर की शाम को जब आखिरी चरण के मतदान के बाद एग्जिट पोल्स के रुझान आएं तो आरजेडी और महागठबंधन में जोश भर गया था। लगा कि लालू यादव परिवार में अब उनकी दूसरी पीढ़ी भी मुख्यमंत्री बनने जा रही है। टुडेज चाणक्य और इंडिया टुडे माई एक्सिस इंडिया के एग्जिट पोल ने तो प्रचंड बहुमत के साथ तेजस्वी यादव की सरकार बनने के अनुमान लगाए। मगर आज जब मतगणना के नतीजे आए तो तस्वीर बदल गई। आरजेडी के 'सत्ता की भैंस' पानी में चली गई। हालांकि आरजेडी ने मतगणना में धांधली के आरोप लगाए हैं। 

वैसे 243 विधानसभा सीटों के लिए तजेस्वी यादव ने जमकर मेहनत की। वो इकलौते ऐसे नेता रहे जिन्होंने सबसे ज्यादा सभाएं और रैलियां कीं। नए बिहार के लिए नई राजनीति का नारा भी दिया। युवाओं के लिए घोषणाएं कीं और पिता लालू के कथित सामाजिक न्याय के नारे के बाद आर्थिक न्याय देने का वादा किया। पिता के जेल में बंद होने की वजह से पार्टी के कैम्पेन की कमान संभालना तेजस्वी की राजनीतिक मजबूरी भी थी। नीतीश के खिलाफ जिस तरह का माहौल था उसमें आखिर गलती कहां हुई जो तेजस्वी पिछड़ गए? ध्यान से देखें तो पांच बड़ी गलतियों ने तेजस्वी की मेहनत पर पानी फेर दिया। 

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#1. अंत तक लालू के साए से नहीं निकल पाए तेजस्वी 
चुनाव की घोषणा तक महागठबंधन के स्वरूप को लेकर कन्फ़्यूजन बना रहा है। हालांकि ऐसी स्थिति एनडीए और दूसरे गठबंधनों में भी रही। तेजस्वी ने पुरानी चीजों को भुलाकर नई राजनीति का वादा तो किया लेकिन उनका कैम्पेन लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब नहीं रहा। भले ही उन्होंने तमाम आरोपों की वजह से पिता लालू यादव और मां राबड़ी के चेहरे को कैम्पेन में इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन टिकट बंटवारे, नेताओं के असंतोष से लेकर महागठबंधन बनने तक यही मैसेज गया कि चुनाव को लालू कंट्रोल कर रहे हैं। आरजेडी का पावर सेंटर रांची बना रहा जहां लालू जेल की सजा काट रहे हैं। तेजस्वी अच्छे नेता तो दिखे, लेकिन स्वतंत्र और शक्तिशाली छवि नहीं गढ़ पाए। अंत में उन्होंने यह ही कह दिया कि लालू राज में गरीब गुरबे बाबू साहब के सामने सीना तानकर चलते थे। विपक्ष ने अपने कैम्पेन में इन्हीं चीजों को निशाना बनाया और बार-बार कहा कि आरजेडी ने सिर्फ चेहरा बदला है उसकी हकीकत पुरानी है। 
 
#2. एनडीए सरकार के काम को पूरी तरह खारिज करना

तेजस्वी यादव ने अति उत्साह में बिहार में एनडीए के 15 साल के काम को पूरी तरह से खारिज कर दिया। जबकि हकीकत यह है कि बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा और महिला अधिकार और काफी हद तक कानून व्यवस्था के मामले में नीतीश के आने के बाद हालत बदले हैं। स्वास्थ्य बीमा, शौचालय, पीएम आवास योजना, उज्ज्वला गैस और जनधन खातों के तहत बिहार में काफी लोगों को लाभ मिला है। एनडीए सरकार में कुछ काम नहीं जैसे तेजस्वी के आरोपों पर ज़्यादातर लोगों ने भरोसा नहीं किया। 

#3. नेताओं का असंतोष और दागी छवि के उम्मीदवारों को तरजीह 
चुनाव की घोषणा से पहले ही पार्टी में असंतोष दिखा। लालू के बेटों का वर्चस्व बढ़ने के साथ पार्टी में सीनियर नेताओं का कद घटा। पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने सीधे लालू पर हमला कर इसे प्रमाणित भी कर दिया। दूसरी जो निगेटिव चीज आरजेडी के लिए साबित हुई वो ये कि बिहार में दागी छवि का पर्याय माने जाने वाले बाहुबली नेताओं को दिल खोलकर टिकट दिया गया। मोकामा में अनंत सिंह, सहरसा में बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी और बेटे, सीवान में मोहम्मद शहाबुद्दीन के करीबियों समेत दर्जनों बड़े बाहुबली पृष्ठभूमि के चेहरों को टिकट देने से गलत संदेश गया। संदेश यह कि आरजेडी की सरकार आने पर फिर से इन्हीं लोगों का बोलबाला होगा। एनडीए नेताओं ने अपनी हर रैली में इसे बिहार में जंगलराज लाने की कोशिश बताया।  

#4. कांग्रेस को ज्यादा भाव, आरएलएसपी जैसे सहयोगियों का अलग हो जाना 
आरजेडी ने महागठबंधन में कांग्रेस को जरूरत से ज्यादा भाव दिया। दूसरे छोटे मगर जातीय समीकरण में महत्वपूर्ण सहयोगियों को वाजिब स्पेस नहीं मिला। हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा(सेक्युलर), आरएलएसपी और वीआईपी पहले महागठबंधन में थे बाद में अलग हो गए। जबकि कांग्रेस को उसकी क्षमता के मुताबिक जरूरत से ज्यादा सीटें दे दी गईं। कांग्रेस को सीटें ज्यादा मिलीं पर उसके अभियान का भी दारोमदार तेजस्वी के कंधों पर ही दिखा। कांग्रेस ने जमीन से जुड़े उम्मीदवार भी नहीं उतारे। राजनीतिक वारिसों को टिकट पकड़ा दिया गया।  

सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और मनमोहन सिंह जैसे नेता बिहार के कैम्पेन में आए ही नहीं। जो आएं वो महज खानपूर्ति करते दिखे। राहुल गांधी ने मात्र 8 सभाएं कीं। एनडीए को देखें तो बीजेपी और जेडीयू ने हर सीट पर जबरदस्त अभियान चलाया। अगर कांग्रेस की बजाय आरएलएसपी और वीआईपी को सीटें दी गई होतीं तो आरजेडी का समीकरण कुछ और हो सकता था। दोनों पार्टियों के पास बिहार का करीब 5 प्रतिशत से ज्यादा वोट बैंक है। वामदलों का साथ मिलने से आरजेडी को फायदा मिला है। वामदल साथ नहीं होते तो हालत शायद और खराब होती। 

#5. बेस वोट में बिखराव को ना रोक पाना 
आरजेडी ने बेस वोट में बिखराव को नहीं रोक पाई। कोसी, चंपारण और सीमांचल में यादव और मुस्लिम वोट निर्णायक हैं। सीमांचल में तो कई सीटें मुस्लिम मतदाता ही जितवाते हैं। वोटिंग ट्रेंड में आरजेडी को चंपारण और सीमांचल में जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा है। कई सीटों पर ओवैसी और मुस्लिम लीग के प्रत्याशी हैं। एनडीए की ओर से बीजेपी ने इन इलाकों के लिए पीएम मोदी के साथ सीएम योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, राजनाथ सिंह जैसे दिग्गजों की ताबड़तोड़ सभाएं कीं। आरजेडी के पास तेजस्वी के अलावा और कोई चेहरा नहीं था। तीसरे चरण के प्रचार के आखिरी दिन गुजरात दंगों का जिक्र कर अब्दुल बारी सिद्दीकी ने ध्रुवीकरण की कोशिश की लेकिन काफी देर हो चुकी थी। 

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