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देव दीपावली के इतिहास की 5 कहानियां: काशी में देवताओं से प्रतिबंध हटने पर दीपोत्सव, अहिल्याबाई से जुड़ी कथा
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देवताओं ने मनाया दीपोत्सव
महाभारत की एक प्रसिद्ध किस्सा है। कर्णपर्व में तरकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नाम के तीन राक्षस भाई रहते थे, जिन्हें त्रिपुरासुर राक्षस कहा जाता था। उनके सोने, चांदी और लोहे से तीन नगर बने हुए थे। इन नगरों को त्रिपुर कहा जाता था। भगवान ब्रह्मा के आशीर्वाद से त्रिपुरासुर शक्तिशाली हो गए थे और देवता उनसे परेशान रहते थे। एक बार इन राक्षसों से त्रस्त होकर देवता भगवान शंकर के पास पहुंचे और उनसे त्रिपुरासुर के अंत की प्रार्थना की। देवताओं की विनती स्वीकार करते हुए भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तभी से उन्हें त्रिपुरारि या त्रिपुरांतक नाम से जाना जाने लगा। राक्षसों के अंत से देवता प्रसन्न हो गए और उन्होंने स्वर्ग लोक में दीपोत्वस मनाया। तभी से हर साल कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली का त्योहार मनाया जाता है।
काशी में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबंध
स्कंद पुराण में एक और कथा का जिक्र है। इसके काशीखंडम में एक कहानी है कि राजा दिवोदास काशी में राज किया करते थे। तब एक बार उन्होंने काशी में देवताओं के आने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव भेष बदलकर काशी पहुंचे और पंचगंगा घाट पर गंगा स्नान किया। जब इसकी जानकारी राजा दिवोदास को लगी तो उन्होंने देवताओं पर लगा प्रतिबंध हटा लिया। इससे देवता खुश हो गए और काशी में दीपोत्सव मनाया।
अहिल्याबाई होलकर ने की शुरुआत
काशी के ज्योतिषाचार्य मानते हैं कि देव दीपावली की शुरुआत भगवान भोलेनाथ से जुड़ी है लेकिन घाटों पर दीप जलाने की कहानी पंचगंगा घाट से जुड़ी हुई है। इतिहास के मुताबिक 1785 में आदि शंकराचार्य से प्रेरणा लेकर महारानी अहिल्याबाई होलकर ने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। उसी वक्त अहिल्याबाई ने पंचगंगा घाट पर पत्थर से बने हजारा स्तंभ पर दीप जलाकर देव दीपावली की शुरुआत की थी। इसके बाद इस त्योहार को भव्य बनाने में योगदान काशी नरेश महाराज विभूति नारायण सिंह ने दिया था।
क्रिकेट खेलने वाले लड़कों ने जलाया पहला दीप
अब अगर इस दौर की बात करें तो कहा जाता है कि 37 साल पहले 1985 में घाट पर कुछ लड़के क्रिकेट खेला करते थे। एक दिन उन्होंने यहां आने वाले श्रद्धालुओं से दीये और तेल का पैसा मांगा और पंचगंगा घाट पर पांच दीपक जलाए। इसी से प्रेरणा लेकर साल 1986 में बनारस के पांच घाटों पंचगंगा, बालाजी, सिंधिया घाट, मान मंदिर और अहिल्याबाई घाट पर दीपोत्सव मनाया गया।
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कुछ लोग बताते हैं कि साल 1987 में कई लोग और इसमें शामिल हुए और पांच घाट की बजाय 15 घाटों तक देव दीपावली मनाने लगे। चार साल बाद अस्सी घाट पर भी इशकी शुरुआत हो गई। पांच साल बाद 27 घाट और अब 85 से ज्यादा घाटों पर तयह उत्सव मनाया जाता है। वहीं, केंद्रीय देव दीपावली महासमिति के अध्यक्ष पं. वागीश दत्त शास्त्री के मुताबिक, नेपाल से आकर बनारस में बसने वाले पं. नारायण गुरु ने साल 1984 में किरणा-गंगा संगम स्थल पर पांच दीये प्रज्जवलित किए थे। इसके बाद से यह महा उत्सव मनाया जा रहा है।
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