सार
शहीद-ए-आजम भगत सिंह आजादी की लड़ाई के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद वह आजादी की लड़ाई कूद पड़े थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली असेंबली में बम फेंका था। उन्होंने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत थी।
नई दिल्ली। देश आजादी का 75वां सालगिरह मना रहा है। यह अवसर हर भारतवासी के लिए विशेष है। देश गुलामी की बेड़ियों से 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था। यह आजादी हमें यू ही नहीं मिली थी। इसके लिए शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh) जैसे वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था। एक बार कि बात है कि जब भगत सिंह अपने चाचा के साथ खेतों में काम करने गए थे। उस समय भगत सिंह के चाचा खेत में आम का पेड़ लगा रहे थे। भगत सिंह ने पूछा था कि चाचा यह क्या कर रहे हो। उन्होंने कहा था कि मैं आम का पेड़ लगा रहा हूं। इतने में भगत सिंह घर गए और बंदूक लेकर आए। वह खेत में गढ्ढा खोदने के बाद बंदूक को गढ्ढे में डालने जा रहे थे तो चाचा ने कहा कि यह क्या कर रहे हो। भगत सिंह ने कहा था कि मैं बंदूक बो रहा हूं, जिससे कई बंदूकें पैदा होंगी और हम अपने देश को इन अंग्रेजों से आजाद करवा सकेंगे।
जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद आजादी की लड़ाई कूद पड़े थे भगत सिंह
भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी किताबें पढ़ने में रूचि रखते थे। वह लाहौर नेशनल कॉलेज में पढ़ रहे थे तो उसी समय 13 अप्रैल 1919 को जालियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, जिसमें हजारों बेगुनाहों की जानें गई। इस घटना से पूरा देश व्याकुल हो उठा। इसने भगत सिंह के जीवन पर भी गहरा प्रभाव डाला, जिसके चलते वह पढ़ाई छोड़कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
गांधी जी से निराश हुए थे भगत सिंह
असहयोग आंदोलन के दौरान 4 फरवरी 1922 को गुस्साई भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी। इसमें 23 पुलिसवालों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। इतिहासकारों की मानें तो गांधी जी के इस फैसले से भगत सिंह बहुत निराश हुए थे। उसके बाद उनका अहिंसा से विश्वास कमजोर हो गया। उन्होंने सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना। भगत सिंह का मानना था कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र रास्ता है।
आजाद की पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़े
काकोरी कांड में राम प्रसाद बिस्मिल सहित चार क्रान्तिकारियों को फांसी दे दी गई, जिससे के बाद पूरा देश भड़क उठा था। इस घटना से भगत सिंह भी आग बबूला हो उठे और चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़ गए। 30 अक्टूबर को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में क्रांतिकारियों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया। इसका नेतृत्व पंजाब केसरी लाला लाजपत राय कर रहे थे। प्रदर्शन में जन सैलाब उमड़ा था, जिसे देखकर अंग्रेज बौखला गए।
अंग्रेज अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चलाने का आदेश दे दिया। लालाजी लाठीचार्ज में गंभीर रूप से घायल हो गये थे। 17 अक्टूबर को उन्होंने आंखें मूंद ली थी। इसे बाद लाजपत राय की मौत का बदला लेने का फैसला चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लिया। इन जांबाज देशभक्तों ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक जेम्स स्कॉट को मारने की साजिश रची। हालांकि पहचानने में गलती हो जाने के कारण उन्होंने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सैंडर्स को गोली मार दी थी। सैंडर्स की सरेआम हत्या से ब्रिटिश हूकूमत बौखला गई। भगत सिंह और राजगुरु लाहौर से भागने में सफल हुए थे।
बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत थी
1929 में ब्रिटिश सरकार पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल लाई थी। ये दोनों कानून भारतीयों के लिए खतरनाक थे। सरकार इन्हें पारित करने का निर्णय ले चुकी थी, जिसके खिलाफ क्रांतिकारियों ने असेंबली में बम फेंकने का फैसला लिया। इसके लिए बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह चुने गए। 8 अप्रैल 1929 को जब दिल्ली की असेंबली में बिल पर बहस चल रही थी तभी असेंबली के उस हिस्से में जहां कोई नहीं बैठा हुआ था। वहां दोनों ने बम फेंक कर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए। इसके बाद पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया। इस दौरान भगत सिंह ने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत थी।
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23 मार्च 1931 को दी गई थी फांसी
इसके बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर असेंबली में बम फेंकने का मुकदमा चला। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को उन्हें सैंडर्स की हत्या का दोषी करार दिया गया। 7 अक्टूबर 1930 को भारत के वीर सपूतों को फांसी की सजा सुनाई गई और फांसी के लिए 24 मार्च 1931 का दिन मुकर्रर हुआ, लेकिन अंग्रेज खौफ में थे कि भगत सिंह की फांसी के बाद हंगामा न हो जाए। इसलिए 23 मार्च 1931 को शाम करीब साढ़े सात बजे ही उन्हें लाहौर की जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
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