सार
आजादी की लड़ाई में काकोरी कांड अहम मोड़ था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिए क्रांतिकारियों को हथियार खरीदने थे, लेकिन इसके लिए पैसे नहीं थे। इसके चलते क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाना लूटने का फैसला किया था।
नई दिल्ली। देश को आजादी हुए 75 साल हो गए। यह आजादी हमें आसानी से नहीं मिली। इसके लिए लाखों लोगों ने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। आज हम आपको काकोरी कांड (Kakori incident) के नायकों के बारे में बता रहे हैं। इतिहासकारों का मानना है कि इस घटना ने क्रांतिकारियों के प्रति जनता का नजरिया बदला था।
हथियार खरीदने के लिए सरकारी खजाना लूटने का लिया निर्णय
5 फरवरी 1922 को चौरी-चौरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। गांधी जी के इस फैसले से युवा क्रांतिकारियों को झटका लगा। क्योंकि बड़ी उम्मीदों के साथ बड़ी संख्या में लोग इस आंदोलन के साथ जुड़ गए थे। इसी के साथ एक नई घटना की नींव पड़ी। आंदोलन से निराश युवाओं ने निर्णय लिया कि वे एक पार्टी का गठन करेंगे। सचीन्द्रनाथ सान्याल के नेतृत्व में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना हुई। इसमें चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, योगेशचन्द्र चटर्जी और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे युवा क्रांतिकारी शामिल हुए। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिए इन लोगों को हथियारों की जरूरत थी, लेकिन हथियार खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। इसके चलते क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने को लूटने का निर्णय लिया।
क्रांतिकारियों ने लूटे मात्र 4601 रुपए
क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जा रही ट्रेन को लूट लिया। इस ट्रेन को काकोरी स्टेशन पर रोका गया और बंदूक की नोक पर गार्ड को बंधक बनाकर लूटा गया। इस घटना को काकोरी कांड के नाम से जाना गया। इतिसकारों की मानें तो इस डकैती में क्रांतिकारियों ने 4601 रुपए लूटे थे। इस घटना से ब्रिटिश सरकार बौखला गई थी। इसके बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुईं।
काकोरी ट्रेन डकैती में 10 लोग ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की और मुकदमा लड़ने में दिलचस्पी दिखाई। इन लोगों का मुकदमा कलकत्ता के बीके चौधरी ने लड़ा।
काकोरी कांड के नायकों को 6 अप्रैल 1927 को सुनाई गई सजा
काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा तकरीबन 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला। इस पर सरकार का 10 लाख रुपए खर्च हुए। 6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला आया, जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजा सुनाई।
रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई। इसके अलावा शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालापानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई। योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह और रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सजा हुई। विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी व प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई। वहीं सरकारी गवाह बनने पर दो लोगों को रिहा कर दिया गया। चंद्रशेखर आजाद पुलिस की गिरफ्त से दूर ही रहे।
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हंसते-हंसते सूली पर चढ़ पर थे देश के वीर सपूत
फांसी के फैसले के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हुआ। सबसे पहले 17 दिसंबर 1927 को गोंडा जेल में राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी दी गई। इसके बाद 19 दिसंबर 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में, अशफाक उल्ला खान को फैजाबाद जेल में और रोशन सिंह को इलाहाबाद में फांसी दी गई। फांसी के बाद पूरा देश तिलमिला उठा था।