सार

रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में अभी तक बॉम्बे हाईकोर्ट से कोई राहत नहीं मिली है। उनकी जमानत याचिका पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी। वहीं, निचली अदालत ने भी इस मामले में गुरुवार तक सुनवाई टाल दी है।

मुंबई. रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में अभी तक बॉम्बे हाईकोर्ट से कोई राहत नहीं मिली है। उनकी जमानत याचिका पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी। वहीं, निचली अदालत ने भी इस मामले में गुरुवार तक सुनवाई टाल दी है। हालांकि, अर्नब ने राहत की उम्मीद से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। इस मामले के साथ ही यह देखना जरूरी है कि अन्य पत्रकारों से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट समेत अन्य अदालतों ने किस प्रकार से केसों पर सुनवाई की। 

HW न्यूज के पत्रकार विनोद दुआ ने जून 2020 में सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह के मामले के खिलाफ याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में रविवार को स्पेशल बेंच बैठाकर मामले में सुनवाई की थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट विनोद दुआ को तुरंत गिरफ्तारी के खिलाफ राहत दी थी और बाद में जांच में शामिल होने से भी राहत दी थी। प्रभावी रूप से सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में दर्ज एफआईआर में कोई प्रभावी जांच न हो।

विनोद दुआ के केस में जब हाईकोर्ट ने लगाई रोक
इससे पहले, विनोद दुआ ने दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज एक केस में दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। हाईकोर्ट ने केस पर सीधे रोक लगाई थी, बल्कि बाद में इसे खारिज भी कर दिया था। विनोद दुआ के खिलाफ शिमला में एक स्थानीय भाजपा नेता अजय श्याम द्वारा भाजपा, खासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ 30 मार्च को अपने यू ट्यूब शो में झूठे आरोप लगाने का मामला दर्ज किया गया था। शिकायत के आधार पर, दुआ को पुलिस ने पूछताछ के लिए हिमाचल बुलाया था। हालांकि, विनोद दुआ ने अपनी उम्र और लॉकडाउन का हवाला देकर पूछताछ में भी शामिल नहीं हुए। इसी तरह की शिकायत दिल्ली पुलिस दंगों के वक्त गलत रिपोर्टिंग करने पर की थी। इस पर विनोद दुआ का कहना था कि उन्हें इसलिए टारगेट किया गया, क्यों कि उन्होंने केंद्र सरकार पर सवाल उठाए। 

सिद्धार्थ वर्धराजन को मिली राहत  
जब यूपी पुलिस ने योगी आदित्यनाथ के बारे में फर्जी खबर चलाने पर द वायर के सिद्धार्थ वर्धराजन के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, तब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें अग्रिम जमानत दे दी थी। यूपी सरकार ने द वायर से खबर हटाने के लिए कहा था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके बाद सरकार ने उनके खिलाफ केस दर्ज किया था। हालांकि, उन्हें हाईकोर्ट से इस मामले में राहत मिल गई थी। 
 
इसी तरह, जब गुजरात के एक पत्रकार, फेस ऑफ नेशन वेबसाइट के पत्रकार धवल पटेल को देशद्रोह के आरोप में गुजरात में गिरफ्तार किया गया, तो गुजरात की निचली अदालत ने उन्हें जमानत दे दी थी। कोर्ट ने कहा था कि पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर और अन्य दस्तावेज राजद्रोह के आरोप की पुष्टि नहीं करते। 

मप्र के पत्रकार को मिली राहत 
इसी तरह के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस साल अक्टूबर में योगेश कुमार होलकर के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर पर रोक लगा दी थी। पत्रकार ने मध्य प्रदेश के मुरैना में 2018 भारत बंद के विरोध प्रदर्शन को कवर किया था, जबकि पुलिस ने उन पर विरोध प्रदर्शन में भाग लेने का आरोप लगाया था।
 
योगेश कुमार होल्कर स्थानीय अखबार दैनिक चंबल सुर्खी में पत्रकार हैं। उन पर 5 FIR दर्ज हुई थीं। जब उन्होंने एफआईआर को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, तो अदालत ने यह कहकर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था कि इस मामले में निचली अदालत में सुनवाई शुरू हो चुकी है। लेकिन जब वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो कोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया था। जबकि यह मामला निचली अदालत में चल रहा था। 
 
जब बंगाल के पत्रकारों को नहीं मिली राहत
इसी तरह से मामला पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के चार पत्रकारों के साथ हुआ। जब एक भ्रष्टाचार के मामले में पत्रकारों ने सबूतों के साथ-साथ उनके द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो पश्चिम बंगाल पुलिस ने पत्रकार भूपेंद्र प्रताप सिंह, अभिषेक सिंह, हेमंत चौरसिया और आयुष कुमार सिंह के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज कीं।
 
सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत और सुरक्षा देने के बजाय इस मामले को 6 महीने तक सुनवाई के योग्य ही नहीं समझा। इस मामले में कोलकाता पुलिस ने पत्रकारों के खिलाफ जनवरी में केस दर्ज किया। पुलिस का आरोप था कि स्टिंग ऑपरेशन राजनेताओं से पैसे वसूलने के लिए किया गया था। वहीं, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से पहले पत्रकारों ने हाईकोर्ट का रुख किया था, लेकिन अदालत ने यह कहकर उनकी याचिका खारिज कर दी कि स्टिंग ऑपरेशन क्रिमनल एक्ट है, चाहें वह जनहित में क्यों ना किया गया हो। 

अर्नब के साथ क्या हुआ?
इसी तरह से जब अर्नब गोस्वामी के खिलाफ 200 से ज्यादा एफआईआर दर्ज हुईं, तो पालघर लिंचिंग मामले में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो अदालत ने एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया और इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट में सुनवाई करने के लिए निर्देशित किया। 

जब महाराष्ट्र पुलिस ने कथित टीआरपी घोटाले में अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी के खिलाफ एक और एफआईआर दर्ज की, तो रिपब्लिक टीवी ने सुप्रीम कोर्ट से गिरफ्तारी से राहत मांगी। तो इस मामले में तुरंत लिस्टिंग की मांग के बावजूद याचिका पर काफी देर में सुनवाई हुई। इसके बाद कोर्ट ने इस मामले में यह कहकर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, याचिकाकर्ता को बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका लगाना चाहि। 

अब अर्नब गोस्वामी को मुंबई पुलिस ने पुराने मामले में गिरफ्तार किया गया, जिसे कोर्ट ने ही बंद कर दिया था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया, साथ ही बेंच ने कहा कि इस मामले में जमानत देने से पहले सुनवाई करने की जरूरत है।