कोलकाता ट्रॉम: 151 साल का सफर खत्म ! जानें एशिया के एकमात्र ट्रॉमवे का इतिहास
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लकड़ी की बेंचों पर सवारी करने और धीमी गति से बढ़ती ट्रेन का अनुभव महसूस करने दुनिया से लोग आते हैं। ट्राम कारें बंगालियों के दिलों में एक विशेष स्थान रखती हैं जो कोलकाता शहर को एक अलग पहचान दिलाती है। पश्चिम बंगाल सरकार ने राजधानी की यातायात चुनौतियों को देखते हुए ट्रॉम का बंद करने का फैसला लिया है। हालांकि, इस हेरिटेज के शौकीन लोगों में इस फैसले को लेकर निराशा है। वैसे सरकार ने यह भी दावा किया है कि ट्रॉम के एक रूट को जारी रखा जाएगा।
कब चलाई गई थी पहली ट्रॉम?
कोलकाता में ट्रॉम सिस्टम को 24 फरवरी 1873 में शुरू किया गया था। सबसे पहले इसे सियालदह और अर्मेनियाई घाट स्ट्रीट के बीच 3.9 किमी की दूरी के लिए चलाया गया। तब इसे घोड़ों से चलाया जाता था। कोलकाता, भारत का एकमात्र शहर है जहां ट्राम सिस्टम काम करता है। ट्रॉम शहर के प्रमुख स्थलों को कनेक्ट करती थी। ट्रॉम पर बैठने का नॉस्टैलजिक अनुभव किसी भी व्यक्ति के लिए नायाब होता है। हालांकि, यह कोलकातावासियों की तो लाइफलाइन थी।
एशिया का सबसे पुराना इलेक्ट्रिक ट्रॉम सिस्टम
कोलकाता का ट्रॉम सिस्टम एशिया का सबसे पुराना इलेक्ट्रिक ट्रॉमवे है। यह देश का एकमात्र ट्रॉम नेटवर्क है जोकि अभी भी चालू है। 19वीं सदी की यह यातायात सुविधा आज भी कोलकाता में देखी जाती है। इसे देखने के लिए दुनिया के विभिन्न देशों के पर्यटक भी आते हैं।
1880 से ट्रॉमवे को रेगुलर किया
1880 में कलकत्ता ट्रामवे कंपनी का गठन करते हुए इसे लंदन में रजिस्टर्ड किया गया। फिर इसे स्ट्रक्चर्ड तरीके से नेटवर्क को विस्तारित किया गया। सियालदह से अर्मेनियाई घाट तक घोड़े से खींची जाने वाली ट्राम पटरियां बिछाई गईं। लेकिन दो साल बाद 1882 में ट्राम कारों को खींचने के लिए भाप इंजनों का प्रयोग शुरू किया गया।
1900 में इलेक्ट्रिक ट्रॉम को मिला विस्तार
साल 1900 में ट्रॉमवे का इलेक्ट्रिफिकेशन शुरू किया गया। भाप से बिजली में इसे तब्दील किया गया। 1902 में 27 मार्च को एशिया में पहली इलेक्ट्रिक ट्रॉमकार एस्प्लेनेड से किडरपोर तक चली। 1903-1904 में कालीघाट और बागबाजार के कनेक्शन सहित नए रूट्स पर इसे चलाया जाने लगा। इसी के साथ ट्रॉमवे नेटवर्क कोलकाता के लोगों की लाइफलाइन बन गई।
20वीं सदी हावड़ा ब्रिज बनने के बाद ट्रॉम नेटवर्क और बढ़ा
1943 में हावड़ा ब्रिज का निर्माण पूरा हुआ तो ट्राम नेटवर्क के कलकत्ता और हावड़ा खंडों को जोड़ा जिससे कुल ट्रैक की लंबाई लगभग 67.59 किमी हो गई।
आजादी के बाद इसका राष्ट्रीयकरण
भारत को आजादी मिलने के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने ट्रामवे के मैनेजमेंट में अधिक सक्रिय भूमिका निभायी। 1951 में सरकारी निगरानी के लिए कलकत्ता ट्रामवेज कंपनी के साथ एक समझौता किया गया। 1976 में इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। हालांकि, मेट्रो युग के शुभारंभ के साथ ट्रॉमवे के विस्तार को लगाम लगने के साथ इसकी लोकप्रियता में कमी आई। हेरिटेज ट्रॉम वे की बजाय मेट्रो ट्रेन को कोलकाता में प्राथमिकता के बाद कई लोग इसे अव्यवहारिक मानने लगे। लेकिन ट्रॉम कोलकाता की पहचान बनी रही।
शहर विकास के रास्ते पर दौड़ा तो ट्रॉमवे के दिन लदने लगे
कोलकाता शहर जब विकास की ओर तेज गति से दौड़ा तो ट्रॉमवे पीछे छूटता नजर आया। इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रॉम लाइनें और डिपो वगैरह धीरे-धीरे अपनी अवस्था पर आंसू बहाने लगे। हालांकि, कोलकाता के तमाम जागरूक लोग इसको संरक्षित करने और इस हेरिटेज को बचाने के लिए आगे आए। लेकिन कोई खास फायदा नहीं दिखा।
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