सार
"जंग तब तक खत्म नहीं होती, जब तक आप घर वापस नहीं आ जाते..." यह शब्द फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर के हैं, जिन्हें 1971 में युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने बंदी बना लिया था। उनके साथ 15 और भारतीय पायलट थी, जिन्हें बंदी बनाकर रावलपिंडी के पास एक शिविर में रखा गया था।
नई दिल्ली. "जंग तब तक खत्म नहीं होती, जब तक आप घर वापस नहीं आ जाते..." यह शब्द फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर के हैं, जिन्हें 1971 में युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने बंदी बना लिया था। उनके साथ 15 और भारतीय पायलट थी, जिन्हें बंदी बनाकर रावलपिंडी के पास एक शिविर में रखा गया था। जेल के अंदर भी भारतीय पायलटों का साहस कम नहीं हुआ। फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर ने पाकिस्तानी जेल से भागने के लिए प्लान बनाया। इसमें फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर, फ्लाइट लेफ्टिनेंट एम एस ग्रेवाल, फ्लाइंग ऑफिसर हरीश सिंह जी शामिल थे।
चाकू, कैंची और कांटी की मदद से किया छेद
फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर का मानना था कि युद्ध तब तक खत्म नहीं होता जब तक आप घर वापस नहीं आ जाते। आप भागने के रास्ते खोजते रहते हैं। पाकिस्तानी जेल से भागने का प्लान फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर ने बनाया। तीनों ने चाकू, कैंची और एक कांटे की मदद से शिविर की दीवार में एक छेद बनाना शुरू कर दिया। उन्हें उस छेद को खोदने में लगभग एक महीने का समय लगा।
दिलीप के पास पाकिस्तान का एक नक्शा था
दिलीप पारुलकर के पास पाकिस्तान का एक नक्शा था। उन्होंने सुझाव दिया कि अभी पूर्व की ओर सीमाओं पर युद्ध जारी है, वहां वे पकड़े या मारे जा सकते हैं। इसलिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा की ओर से भागेंगे। उन्हें सीमा से 34 मील दूर तोरखम नाम का एक कस्बा मिला, जिसमें लांडी खाना नाम का रेलवे स्टेशन था।
भागने में आई एक बड़ी दिक्कत
दिलीप पारुलकर जिस मैप का उपयोग कर रहे थे, वह पुराना था और ब्रिटिश टाइम्स के दौरान लांडी खाना स्टेशन मौजूद था। सीमावर्ती शहर तोरखम तक पहुंचने के लिए टैक्सी से यात्रा करनी पड़ती थी। हर कोई इसके बारे में जानता था और यहां तक कि बंद रेलवे स्टेशन के बारे में भी। जब पायलट्स ने लांडी खाना स्टेशन के बारे में पूछताछ की तो स्थानीय लोगों शक करने लगे। वे तहसीलदार द्वारा पकड़े गए थे।
दिलीप पारुलकर ने बनाया बहाना
दिलीप पारुलकर और उनके साथियों ने बहाना बनाया कि वे पाकिस्तान वायु सेना के पायलट हैं और लांडी खाना में छुट्टी पर आए हैं। पारुलकर ने भी निर्भीकता से अपना बंदी कैंप काकार्ड दिखाया, क्योंकि अधिकांश स्थानीय लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे। फिर भी तहसीलदार का संदेह कम नहीं हुआ। भागने की योजना एक पुराने मैप के कारण फेल हो गई। हालांकि तीन महीने बाद सभी युद्धबंदियों को छोड़ दिया गया। फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिलीप पारुलकर के भागने की योजना 1971 के युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना द्वारा उठाए गए सबसे साहसी और घातक कदमों में से एक थी। हालांकि यह योजना असफल रही, लेकिन कहानी ने लोगों को प्रेरित किया कि कठिन समय में भी अगर दृढ़ इच्छा है, तो हमेशा एक रास्ता निकलता है।