सार

जम्मू में ड्रोन हमला की साजिश से हमको सीख लेना होगा। अब समय आ गया है कि हाईब्रिड युद्ध के लिए हम तैयार हो जाएं। देश के जाने माने रक्षा विशेषज्ञों का यही मानना है कि हम तकनीक पर और अधिक फोकस करें ताकि भविष्य की किसी भी साजिश को नाकाम कर सकें।

नई दिल्ली। जम्मू में हवाई अड्डे के तकनीकी क्षेत्र में ड्रोन आधारित आईईडी हमले के बाद इसको लेकर चल रहे जांच में किसी विशेष शोध की आवश्यकता नहीं है। छोटे ड्रोन से लक्ष्य पर विस्फोटक सामग्री की डिलेवरी की घटना न ही कोई आश्चर्य पैदा कर रहा है। 

पिछले कुछ वर्षाें से हाइब्रिड युद्ध की टेकनीक को अपनाया जा रहा है। अलग-अलग आकार के क्वाडकॉप्टर (रोटरी-विंग ड्रोन) एलओसी और अंतरराष्ट्रीय सीमा (आईबी) को पाकिस्तान और पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) से पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आए दिन भेजा जाता रहा है। यह कुछ साल पहले मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर में शुरू हुआ था। इसका मुख्य उपयोग अभी तक घुसपैठ के दौरान भारतीय सीमा पर मानवयुक्त स्थानों के संभावित स्थानों की तस्वीर और मानचित्रण करने के लिए किया जाता रहा है। 

पिछले पांच वर्षों या उससे कुछ अधिक समय से सुरक्षा एजेंसियों का पूरा ध्यान आतंकवादी समूहों पर केंद्रित हो गया जो हवाई वाहनों का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि पंजाब में गतिविधियों को तेज किया जा सके। लेकिन सुरक्षा एजेंसियों की वजह से इन पर पूरा कंट्रोल कर किया गया जिससे इनकी गतिविधियां बिल्कुल कम हो गई। हालांकि, आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों के लिए ड्रोन द्वारा रसद आपूर्ति किसी ने किसी तरह किया जा सका या रोका नहीं जा सका। इससे यह बात तो साफ थी कि उपयोग करने वाले विस्फोटक पेलोड में संभावित लिप्तता जल्द से जल्द दिखाएंगे।

किसी भी रेस्ट्रिक्टेड या बेहद सिक्योरिटी वाले एरिया में विस्फोटकों का पेलोड पहुंचाने में छोटे आकार के ड्रोन का उपयोग आतंकियों या उसके साजिशकर्ताओं के लिए एक प्रयोग के सफल होना और सपना साकार होने जैसा है।

सचेत होने की बात यह कि वे अधिक से अधिक टर्मिनल प्रभाव के लिए भारी ड्रोन को शामिल करना चाहेंगे जोकि हाइब्रिड युद्ध की जटिलता और दिशा को बदल कर थोड़ी मुश्किलें साबित कर सकता है। 
यह क्षमता का संदेश है जो अलर्ट होने के लिए जरूरी है क्योंकि यह नियमित बलों के प्रयास, ऊर्जा और तैनाती के अनुपात से बेहद खतरनाक है। क्योंकि वह संसाधनों की कमी का फायदा उठा सकते। छोटे आकार के ड्रोनों को हवा में सीमित समय के कारण बेअसर करना मुश्किल है।

यदि सीमा पार या एलओसी से कम दूरी पर लॉन्च किया जाता है तो उनका कम उड़ान पथ और लक्ष्य के लिए कम समय में, विशेष रूप से रात में, किसी भी मैन्युअल लक्ष्य प्राप्ति के लिए आसान है।
हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण वे उपाय हैं जिनका हम प्रस्ताव करते हैं। हमारी पैसिव रक्षा ठीक है। आभासी वायु रक्षा के लिए और अधिक प्रशिक्षित हवाई रक्षकों और त्वरित प्रतिक्रिया टीमों (क्यूआरटी) के माध्यम से इसका सहारा लेना होगा। उपमहाद्वीप में हाइब्रिड युद्ध केवल आतंकवादी तत्वों के साथ पाकिस्तान के धोखेबाजी की निगरानी के लिए ही नहीं है बल्कि हर स्तर पर इसके लिए सचेत रहना होगा।
रोटरी या फिक्स्ड विंग ड्रोन को बहुत उच्च तकनीक की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इससे पहले कि ये हमारे लिए एक उपद्रव और अनावश्यक शर्मिंदगी का स्रोत बनें, सही आक्रामक विकल्पों पर स्पष्ट रूप से विचार किया जाना चाहिए। एलओसी की सीमा के भीतर या उसके ठीक बाहर हमारे गोला-बारूद के ढेरों को निशाना बनाने के लिए ऐसे कुछ ड्रोन लॉन्च किए जाने में ज्यादा समय नहीं है।

जम्मू में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण संभवतः राॅ प्रौद्योगिकी को दर्शाता है। लेकिन सभी सैन्य और अन्य संवेदनशील तैनाती को नोटिस पर रखते हुए चैबीसों घंटे निगरानी (मैनुअल प्रकार के अधिक) की आवश्यकता है ताकि पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

इस तथ्य को देखते हुए कि इन उपकरणों को जीपीएस-सक्षम किया जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के स्थानों का उपग्रह द्वारा सर्वेक्षण किया जा सकता है। उत्तरी पंजाब और जम्मू के संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र में आईबी के आसपास ऐसे कई लक्ष्य हैं जिसकी निगरानी बेहद आवश्यक है।

आतंकवादियों को एक ही रात में शारीरिक रूप से घुसपैठ करने और हमला करने का जो फायदा मिलता है, उसे ऐसे ड्रोन का इस्तेमाल करके भी इस्तेमाल किया जा सकता है। वास्तव में उनका उपयोग व्यापक मोर्चे पर कई उद्देश्यों पर प्रहार करने, ध्यान हटाने और फिर परिणामी अराजकता का फायदा उठाने के लिए भौतिक घुसपैठ का उपयोग करने के लिए किया जा सकता है।

यह याद किया जा सकता है कि 14 सितंबर, 2019 को यमन के हौथी विद्रोहियों ने सऊदी अरब की राजधानी रियाद में अरामको तेल रिफाइनरी पर हमला किया था। उन्होंने रिफाइनरी के कामकाज को पंगु बनाने के लिए 11 मिसाइलों के साथ छह बम लदे ड्रोन का इस्तेमाल किया। यह हमारे संदर्भ में दोहराने के लिए कुछ मुश्किल नहीं है जहां जम्मू या पठानकोट में तेल प्रतिष्ठान और 10-20 किमी से अधिक की गहराई पर विभिन्न संचार केंद्र असुरक्षित रहते हैं।

हमने जो घटना देखी है, उसमें केवल दो ड्रोन का उपयोग किया गया है लेकिन ड्रोन झुंड की पूरी घटना हमारे लिए अज्ञात नहीं है। यह एक ऐसी पद्धति है जो अंततः अपनाई गई रणनीति हो सकती है। कहना न होगा कि ग्रुप में बड़े लक्ष्य की साजिश हो सकती है। और यह साजिश करने वाले लक्ष्य तक पहुंचाने वाले कुछ पेलोड की उच्च गारंटी लेकर बड़ा कर सकते हैं, भले ही उनमें कुछ को गोली मार दी जाए। ऐसे में हमको और अधिक सचेत, सतर्क होकर तकनीक से लैस होने की बेहद आवश्यकता है।

(लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन श्रीनगर स्थित 15 कोर के पूर्व जीओसी और कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के चांसलर हैं।)