सार

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर जनजातीय दून संस्कृति स्कूल में राजी भाषा की शिक्षा एवं अध्ययन केंद्र का उद्घाटन किया गया।

देहरादून। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर बुधवार को विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दुर्गेश पंत ने झाझरा स्थित जनजातीय दून संस्कृति स्कूल में प्रदेश की मृत प्रायः वन राजी भाषा की शिक्षा एवं अध्ययन केंद्र का उद्घाटन किया। दुर्गेश पंत उत्तराखंड विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् के महानिदेशक हैं।

उन्होंने इस मिशन के लिए पूर्व सांसद तरुण विजय को बधाई देते हुए कहा कि हजार भाषणों से बेहतर है एक ठोस कदम मंजिल की और बढ़ाना। प्रदेश के सुदूर धारचूला चम्पावत क्षेत्र के वन राजी समाज की कुल जनसंख्या करीब 900 है। यह विश्व की तीव्र गति से लुप्त हो रहीं जनजातियों में शामिल है। इनकी भाषा वन राजी या राजी आज तक किसी ने लिपिबद्ध नहीं की। पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार में उनकी जनजातीय दिशा दृष्टि से प्रेरित होकर पूर्व सांसद तरुण विजय ने वन राजी भाषा के पुनरुज्जीवन, शिक्षा पाठ्यक्रम निर्धारण, शब्दकोष निर्माण तथा आर्टफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा उनके ध्वन्यांकन का मिशन अभिकल्पित किया। यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है, जिसके लिए विज्ञान परिषद् पूरी सहायता करेगी।

इस अवसर पर रजनी देवी राजवर ने वन राजी भाषा की अध्यापिका के रूप में कार्य प्रारम्भ कर सम्पूर्ण प्रदेश में वन राजी समाज में वन श्रमिक से अध्यापक बनने का गौरव प्राप्त किया। झाझरा का जनजातीय विद्यालय उत्तराखंड में वन राजी भाषा के अध्ययन और राजी में शिक्षा प्रारम्भ करवाने वाला पहला स्कूल बना है। प्रो दुर्गेश पंत ने रजनी देवी राजवर द्वारा ब्लैक बोर्ड पर अंकित राजी शब्दों के साथ स्वयं देवनागरी में स्वागत लिख कर इस केंद्र का उद्घाटन किया और वन राजी छात्रों को अपनी भाषा पढ़ने के लिए प्रेरित किया।

पिथौरागढ़ के एक अत्यंत पिछड़े और सुदूर गांव किमखोला निवासी रजनी देवी राजवर सरकारी कार्यों में मार्ग और वन श्रमिक का काम करती थीं। तरुण विजय उनको अपने बेटे के साथ देहरादून जनजातीय विद्यालय में पढ़ने के लिए लाए। गांव में कक्षा आठ तक पढ़ीं रजनी देवी ने मातृ भाषा दिवस पर बताया कि उनके समाज के गीत और भाषा विलुप्त हो रहें हैं। कुछ नहीं बच रहा है। इसलिए यहां वन राजी शिक्षा के लिए अलग से व्यवस्था का हिस्सा बनने और वन राजी अध्यापिका का दर्जा पाकर वे बहुत प्रसन्न हैं। प्रो दुर्गेश पंत ने कहा कि यदि किसी समाज के गीत और कथाएं ही समाप्त हो रही हों तो यह बहुत दारुण स्थिति का परिचायक है।