सार
हाईकोर्ट ने कहा कि अदालत इस तथ्य पर अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती है कि याचिकाकर्ताओं की आशंकाओं को दूर करने की जरूरत है। केवल इसलिए कि याचिकाकर्ताओं ने अपने परिवार के सदस्यों की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली है, उन्हें संविधान में परिकल्पित मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।
चंडीगढ़ : परिवार के खिलाफ जाकर हिंदू लड़के से शादी करने वाली मुस्लिम लड़की की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने दोनों को सुरक्षा देने का आदेश दिया है। पंजाब (Punjab) और हरियाणा (Haryana) की हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि मुस्लिम लड़की के युवा होने के बाद वह जिसे भी पसंद करे उससे शादी करने के लिए स्वतंत्र है। अगर वह जोड़ा बराबरी का है तो पैरेंट्स को इस पर रोक लगाने का कोई हक नहीं है। ऐसे में उन्हें पूरी तरह सुरक्षा मुहैया कराई जाए।
याचिका में क्या है
दरअसल, एक याचिका में बताया गया कि 17 साल की मुस्लिम लड़के ने 33 साल से हिंदू लड़के से शादी कर ली। दोनों ने परिवार वालों के खिलाफ जाकर विवाह किया है और उनकी जान को खतरा है। याचिकाकर्ता ने कहा कि मुस्लिम धर्म के अनुसार यौन परिपक्वता पाने के बाद लड़का और लड़की दोनों को ही विवाह के लिए पात्र माना जाता है। ऐसे में उन्हें सुरक्षा दी जाए। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि मुस्लिम कानून के तहत यौवन और बहुमत एक समान हैं, और एक अनुमान है कि एक व्यक्ति 15 साल की आयु में वयस्कता प्राप्त करता है। वकील ने यह भी तर्क दिया कि एक मुस्लिम लड़का या मुस्लिम लड़की जो यौवन प्राप्त करती है, उसे अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से शादी करने की स्वतंत्रता है और उनके अभिभावक को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।
हाईकोर्ट ने क्या कहा
हाईकोर्ट के जज जस्टिस हरनेश सिंह गिल ने कहा कि कानून स्पष्ट है कि एक मुस्लिम लड़की की शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित होती है। पुस्तक के अनुच्छेद 195 के अनुसार, ' मोहम्मडन कानून के सिद्धांत याचिकाकर्ता नंबर 1 (लड़की) 17 साल की होने के कारण, सर दिनशाह फरदुनजी मुल्ला द्वारा, अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ विवाह का अनुबंध करने के लिए सक्षम है। याचिकाकर्ता नंबर 2 (उसकी साथी) की उम्र करीब 33 साल बताई जा रही है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता नंबर एक विवाह योग्य आयु का है, जैसा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा परिकल्पित किया गया है।
अदालत बंद नहीं कर सकता अपनी आंखे
जस्टिस हरनेश सिंह गिल ने कहा कि अदालत इस तथ्य पर अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती है कि याचिकाकर्ताओं की आशंकाओं को दूर करने की जरूरत है। केवल इसलिए कि याचिकाकर्ताओं ने अपने परिवार के सदस्यों की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली है, उन्हें संविधान में परिकल्पित मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।
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