सार
बेंगलुरु: कर्नाटक फुटबॉल टीम में कन्नड़िगा खिलाड़ियों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। बाहरी राज्यों के खिलाड़ी कर्नाटक की टीमों में अपना दबदबा बनाते जा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राज्य में फुटबॉल संस्कृति खत्म होती जा रही है या फिर बच्चे फुटबॉल में रुचि खोते जा रहे हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने निकला 'कन्नड़प्रभा' को कुछ चौंकाने वाली जानकारी हाथ लगी है।
कर्नाटक में सैकड़ों स्थानीय फुटबॉल क्लब सक्रिय हैं। कुछ क्लब राज्य और राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट में हिस्सा लेते हैं। हम मानते हैं कि जितने ज़्यादा क्लब होंगे, उतने ही ज़्यादा स्थानीय खिलाड़ियों को मौका मिलेगा। लेकिन हकीकत यह है कि कर्नाटक में बाहरी राज्यों के खिलाड़ियों के दबदबे की वजह यही क्लब हैं।
आमतौर पर किसी भी क्लब में 30 से 40 खिलाड़ी ही होते हैं। लेकिन किसी भी चैंपियनशिप जीतने के बाद क्लब में शामिल होने वाले बच्चों की संख्या 400 से 600 तक पहुँच जाती है। इसके बाद क्लब अपना खेल खेलते हैं। 'कन्नड़प्रभा' को मिली जानकारी के मुताबिक, ज़्यादातर क्लब एक बच्चे से सालाना 1.5 से 2 लाख रुपये तक फीस वसूलते हैं। सूत्रों का कहना है कि कुछ क्लब तो 3 से 4 लाख रुपये तक भी फीस लेते हैं।
ईशान्य राज्यों पर निशाना: फुटबॉल में ज़्यादा रुचि रखने वाले ईशान्य राज्यों के बच्चे ही कर्नाटक के स्थानीय क्लबों के निशाने पर होते हैं। इसके लिए कुछ एजेंसियां भी काम करती हैं। इन एजेंसियों का काम होता है ईशान्य के बच्चों को हमारे राज्य के स्थानीय क्लबों में दाखिला दिलाना।
ईशान्य के बच्चे जब यहां के क्लबों में आते हैं, तो उन्हें यहां के स्कूलों में भी दाखिला दिलाया जाता है। कुछ बच्चे यहां के स्कूलों में दाखिला लेने के बाद भी अपने ही राज्यों में रहते हैं। यानी इसमें यहां के स्कूलों की भी भूमिका होती है। यही वजह है कि हमारे यहां के क्लबों में ज़्यादातर ईशान्य के बच्चे ही दिखाई देते हैं। बाहरी राज्यों के बच्चों का सारा खर्च स्थानीय क्लब ही उठाते हैं। यानी स्थानीय बच्चों से ली जाने वाली फीस से ही बाहरी राज्यों के बच्चों का खर्च निकाला जाता है।
सिर्फ़ दिखावे के लिए होते हैं स्थानीय बच्चे: जब क्लबों में 600 बच्चे होते हैं, तो स्वाभाविक है कि ट्रेनिंग की गुणवत्ता कम हो जाती है। लेकिन क्लब मालिक पहले से ही तय कर लेते हैं कि किन खिलाड़ियों को ज़्यादा तवज्जो देनी है। यही वजह है कि एजेंसियों के ज़रिए आने वाले बाहरी राज्यों के बच्चे ही टीम में अपना दबदबा बना पाते हैं। उन्हें ही खास ट्रेनिंग और पौष्टिक आहार दिया जाता है। बाकी ज़्यादातर खिलाड़ी तो बस गेंद पास करने के लिए ही टीम में होते हैं।
टीम में कर्नाटक के खिलाड़ियों की भूमिका भी कुछ खास नहीं होती है। कुछ मैचों में तो उन्हें कुछ मिनटों के लिए ही खेलने का मौका मिलता है। इससे उन्हें टीम में जगह तो मिल जाती है, लेकिन माता-पिता को भी खुशी होती है कि उनका बच्चा जिस टीम में है, वह जीती है। लेकिन उनकी प्रतिभा निखरकर सामने नहीं आ पाती है। किसको खेलना है, कौन आगे बढ़ेगा, मैच में कौन किसको गेंद पास करेगा, किसको अपनी प्रतिभा दिखाने का ज़्यादा मौका मिलेगा, यह सब क्लब ही तय करते हैं। यही वजह है कि कुछ खास बच्चे ही राज्य की सीनियर टीमों में जगह बना पाते हैं।
5 साल खेलने पर मिल जाती है कन्नड़िगा की पहचान!
कर्नाटक राज्य फुटबॉल संघ के नियमों के मुताबिक, कोई भी बाहरी राज्य का खिलाड़ी अगर हमारे राज्य में 5 साल तक खेलता है, तो उसे कर्नाटक का ही माना जाएगा। इसके बाद वह हमारी राज्य की टीम में खेल सकता है। यही वजह है कि ईशान्य राज्यों से 10 साल से कम उम्र के बच्चों को यहां लाने वाले क्लब उन्हें राज्य के किसी भी स्कूल में दाखिला दिला देते हैं। कुछ बच्चे यहां पढ़ाई करते हैं, तो कुछ अपने-अपने राज्यों में ही रहते हैं। लेकिन स्कूल के रिकॉर्ड के मुताबिक, वे कर्नाटक में ही रह रहे होते हैं, इसलिए उन्हें कन्नड़िगा मान लिया जाता है।
ईशान्य के बच्चों में ज़्यादा होती है उम्र धोखाधड़ी
आरोप है कि ईशान्य से हमारे राज्य में आने वाले ज़्यादातर बच्चे उम्र में धोखाधड़ी करते हैं। इसमें एजेंसियों की अहम भूमिका होती है। कम उम्र दिखाकर बच्चों को अलग-अलग आयु वर्ग के टूर्नामेंट में खिलाया जाता है। सूत्रों के मुताबिक, अंडर-13 में खेलने वाले बाहरी राज्यों के कुछ बच्चों की असली उम्र कम से कम 15 साल होती है। हालांकि, लीग में खेलने से पहले उनके दस्तावेज़ों की जांच की जाती है, लेकिन माना जाता है कि बाहरी राज्यों से आते समय ही बच्चों के दस्तावेज़ों में हेरफेर कर लिया जाता है।
स्थानीय लोगों की मांग क्या है?
स्थानीय लोगों की मांग है कि कर्नाटक की टीम में यहां के बच्चों को ज़्यादा मौके मिलने चाहिए। इसके लिए बाहरी राज्यों से आने वाले बच्चों को कर्नाटक में कम से कम 12-15 साल रहना अनिवार्य किया जाना चाहिए। फुटबॉल संघ से स्थानीय लोगों ने मांग की है कि उम्र के आधिकारिक प्रमाण के तौर पर सिर्फ़ स्थानीय जन्म प्रमाण पत्र को ही स्वीकार किया जाना चाहिए।