पश्चिम बंगाल में कंचनजंघा एक्सप्रेस के साथ मालगाड़ी की टक्कर ने एक बार फिर कवच एंटी-कोलिजन सिस्टम को सुर्खियों में ला दिया है। इसका ट्रायल 2016 में शुरू हुआ था।
कवच अभी तक प्रमुख खंडों में पूरी तरह नहीं लगा है। इसकी वजह सुरक्षा के प्रति लापरवाही और कवच पर आने वाली लागत को बताया जा रहा है। कवच होता तो यह हादसा टल सकता था।
फरवरी में राज्यसभा में रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कवच लगाए जाने की प्रगति की अपडेट जानकारी दी थी। बताया था कि कवच को 1,465 रूट किलोमीटर और 139 इंजनों पर लगाया गया है।
अश्विनी वैष्णव ने बताया था कि दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा कॉरिडोर पर कवच लगाने के लिए टेंडर स्वीकार कर लिया गया है। यह लगभग 3,000 रूट किलोमीटर कवर करती हैं।
वैष्णव ने कहा था कि 3,040 किलोमीटर रूट पर ऑप्टिकल फाइबर केबल की लगाए जाएंगे और 269 दूरसंचार टावर बनाए जाएंगे।
रेल मंत्री ने कहा था कि स्टेशनों पर 186 और 170 इंजनों उपकरण लगाए गए हैं। ट्रैक-साइड उपकरण 827 रूट किलोमीटर पर तैनात किए गए हैं।
कवच प्रणाली लगाने की लागत अधिक है। ट्रैकसाइड और स्टेशन उपकरण उपलब्ध कराने में प्रति किलोमीटर लगभग ₹50 लाख का खर्च आता है। कवच तकनीक से एक इंजन को लैस करने में 70 लाख रुपए लगते हैं।
2024 में कवच के लिए 710 करोड़ रुपए आवंटित किया गया था। वित्त वर्ष 2025 के अंतरिम बजट में लगभग ₹560 करोड़ निर्धारित किए गए थे।
सबसे पहले ट्रैक को रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (RFID) तकनीक से लैस किया जाता है। इसके बाद इंजन में RFID रीडर, एक कंप्यूटर और ब्रेक इंटरफेस उपकरण लगाए जाते हैं।
अंत में रेलवे स्टेशनों पर टावर और मोडेम सहित रेडियो इन्फ्रास्ट्रक्चर लगाए जाते हैं। कवच पता लगा लेता है कि ट्रैक पर कोई और ट्रेन तो नहीं। यह टक्कर की संभावना पर ट्रेन रोक देता है।