आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकृपणस्य च।
श्रीकामो न गृह्णयात् ज्येष्ठापत्यकलत्रयोः ॥
अर्थ- स्वयं का, गुरु का, कंजूस व्यक्ति का, बड़े पुत्र का, और पत्नी को नाम लेकर नहीं बुलाना चाहिए।
स्मृति शास्त्र के अनुसार, बार-बार अपना नाम अपने मुख से नहीं लेना चाहिए। ऐसा करना अहंकार का सूचक होता है। बहुत जरूरी आवश्यकता हो तभी अपना नाम अपने मुख से लेना चाहिए।
स्मृति शास्त्र कहता है कि अपने गुरु का नाम भी कभी अपने मुख से नहीं लेना चाहिए क्योंकि सम्मान करने योग्य है। गुरु का नाम लेने से उनके सम्मान में कमी आ सकती है।
स्मृति शास्त्र में लिखा है कि अपने बड़े पुत्र को भी उसके नाम से नहीं बुलाना चाहिए। उसे किसी अन्य नाम से बुला सकते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उसकी आयु में कमी आ सकती है।
इसके पीछे मनोवैज्ञानिक तथ्य है। यदि किसी कंजूस व्यक्ति का नाम बार-बार लेंगे, तो उसके जैसे ही अवगुण हमारे मन में भी प्रवेश कर सकते हैं, जो हमारे लिए ठीक नहीं है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार, पति-पत्नी को भी कभी एक-दूसरे का नाम नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने से वैवाहिक सुख में कमी आने लगती है और कईं बार संबंध विच्छेद की संभावना भी बन सकती है।