काशी में जलती चिताओं के बीच मुर्दों की राख से खेली गई होली, इस परंपरा में छिपा है गहरा ‘रहस्य’?

हमारे देश में होली (Holi 2022) से जुड़ी कई ऐसी परंपराएं है जो बहुत अलग हैं। ऐसी ही एक परंपरा काशी (Kashi) की होली से जुड़ी हैं। यहां लोग प्राचीन मणिकर्णिका घाट (Manikarnika Ghat) पर चिता की राख से होली खेलते हैं। सुनने में बात भले ही अजीब लगे लेकिन ये सच है।

उज्जैन. होली पर भगवान शिव के भक्त गंगा नदी के किनारे मणिकर्णिका घाट पर इकट्ठे होते हैं और वहां जल रही चिताओं की राख उड़ाकर एक-दूसरे के साथ होली (Holi 2022) का जश्न मनाते हैं। इस परंपरा को मसान होली (Masaan Holi Kashi) कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। दुनिया भर के लोग इस अनोखी होली को देखने यहां आते हैं। चिता की राख से होली खेलने का नजारा किसी के भी रौंगटे खड़े कर सकता है। 

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ये है इस परंपरा से जुड़ी मान्यता
काशी में चिता भस्म से होली खेलने के पीछे एक मान्यता छिपी है। उसके अनुसार, रंगभरी एकादशी पर भगवान शिव माता देवी पार्वती का गौना (विदाई) कराकर अपने धाम काशी लाते हैं, इस दिन यहां होली उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव में सभी देवी-देवता यक्ष, गंधर्व आदि शामिल होते हैं, लेकिन शिवजी के गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि इसमें शामिल नहीं हो पाते। इन्हें खुश करने के लिए भगवान शिव मणिकर्णिका घाट पहुंचते हैं और चिता भस्म से भूत, प्रेतों के साथ होली खेलते हैं।

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चिता भस्म से ही क्यों खेलते हैं होली?
काशी के मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म से होली खेलने की परंपरा में एक गहरा रहस्य छिपा है। उसके अनुसार हमारे ग्रंथों में लिखा है कि ये संसार नश्वर यानी एक दिन नष्ट होने वाला है। सृष्टि के अंत में सबकुछ खत्म हो जाएगा और दुनिया राख यानी भस्म में बदल जाएगी। हर जीवित प्राणी का यही हाल होगा। चिता भस्म से होली खेलने का अभिप्राय है कि जीवन और दुनिया के प्रति अधिक मोह रखना मूर्खता है। यही भस्म ही हमारा भी अंतिम सत्य है।

क्यों खास है मणिकर्णिका घाट?
काशी के मणिकर्णिका घाट का वर्णन कई ग्रंथों में मिलता है और इससे जुड़ी कई मान्यताएं भी हैं, जो इसे खास बनाती हैं। एक मान्यता के अनुसार देवी पार्वती जी का कर्ण फूल (कान में पहनने का आभूषण यहाँ एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने देवी सती के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार इसी स्थान पर किया था, इसलिए इसे महाश्मसान भी कहते हैं। 

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