एक वोट की कीमत: इंदिरा गांधी की हत्या और सिख विरोधी दंगों के बाद यहां हुई थी 1-1 वोट की जंग

डेमोक्रेटिक प्रोसेस में कई बार एक वोट की अहमियत का पता चला है। 1984 में पंजाब की लुधियाना लोकसभा सीट पर हुआ चुनाव ऐसा ही था जिसमें हर वोट बेशकीमती हो गया था। ये चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। 

Asianet News Hindi | Published : Oct 3, 2020 11:29 AM IST

नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा (Bihar Polls 2020) हो रहे हैं। इस बार राज्य की 243 विधानसभा सीटों पर 7.2 करोड़ से ज्यादा वोटर मताधिकार का प्रयोग करेंगे। 2015 में 6.7 करोड़ मतदाता थे। कोरोना महामारी (Covid-19) के बीचे चुनाव कराए जा रहे हैं। इस वजह से इस बार 7 लाख हैंडसैनिटाइजर, 46 लाख मास्क, 6 लाख PPE किट्स और फेस शील्ड, 23 लाख जोड़े ग्लब्स इस्तेमाल होंगे। यह सबकुछ मतदाताओं और मतदानकर्मियों की सुरक्षा के मद्देनजर किया जा रहा है। ताकि कोरोना के खौफ में भी लोग बिना भय के मताधिकार की शक्ति का प्रयोग कर सकें। बिहार चुनाव समेत लोकतंत्र की हर प्रक्रिया में हर एक वोट की कीमत है। 

डेमोक्रेटिक प्रोसेस में कई बार एक वोट की अहमियत का पता चला है। 1984 में पंजाब की लुधियाना लोकसभा सीट (Ludhiyana Lok Sabha Results 1984) पर हुआ चुनाव ऐसा ही था जिसमें हर वोट बेशकीमती हो गया था। ये चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। ऑपरेशन ब्लूस्टार (Operation Blue Star) के बाद 31 अक्तूबर 1984 के दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या (Indira Gandhi Assassination) उनके सुरक्षा गार्ड्स ने कर दी थी। आनन-फानन में इंदिरा के बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा की हत्या के बाद समूचे देश में सिख विरोधी दंगे (1984 Anti-Sikh Riots) भड़क गए। पंजाब अलगाववाद की आग का शिकार हो गया। 

कांग्रेसी गढ़ में अकाली उभार 
तब पंजाब में आम चुनाव ऐसे ही संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक हालात के बीच हुए थे। सिखों में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा नजर आ रहा था। ये गुस्सा पंजाब की अन्य सीटों के साथ लुधियाना में दिखा भी। उस वक्त पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) क्षेत्रीय दल के रूप में सिखों की राजनीति कर रही थी। 1962 और आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए तो इस सीट पर कांग्रेस (Congress) को कभी चुनौती नहीं मिली। पार्टी लगातार जीत हासिल करती रही। इंदिरा विरोधी लहर के दौरान 1977 में अकाली ने पहली बार ये सीट जीती थी, लेकिन 1980 के मध्यावधि चुनाव में वो जीत को बरकार नहीं रख पाए और एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई। 

 

सिख विरोधी दंगों के काले साए में हुए थे चुनाव 
1984 में शिरोमणि अकाली दल ने यहां से मेवा सिंह गिल (Mewa Singh Gill) को मैदान में उतारा। गिल की कांग्रेस उम्मीदवार के साथ सीधी टक्कर थी। लुधियाना पंजाब की ऐसी सीट है जहां सिख मतदाताओं के साथ ही पंजाबी हिंदुओं की अच्छी ख़ासी तादाद है। उस दौरान चुनाव पर ऑपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा की हत्या और सिख विरोधी दंगों का साया साफ नजर आ रहा था। ऐसे माहौल में कांग्रेस के लिए चुनाव जीतना बेहद मुश्किल लग रहा था।

आखिरी राउंड में ढह गया कांग्रेस का किला 
मतगणना में यह दिखा भी। अकाली के पक्ष में सिखों की एकजुटता ने रंग दिखाना शुरू किया। जैसे-जैसे मतगणना आगे बढ़ने लगी अकाली उम्मीदवार कांग्रेस को जबरदस्त टक्कर देने लगे। हर राउंड के बाद मुक़ाबला नजदीकी होता जा रहा था और आखिरी राउंड में पंजाब में कांग्रेस का लुधियाना किला ढहता नजर आया। आखिरी राउंड की मतगणना के बाद अकाली उम्मीदवार मेवा सिंह गिल ने सिर्फ 140 वोट से कांग्रेस का किला ढहा दिया। इस हार का असर ये रहा कि अगले कई सालों तक यहां कांग्रेस को जीत के सूखे का सामना करना पड़ा। 1984 से 2004 में बीच में सिर्फ एक बार 1999 में सिलसिला टूटा और कांग्रेस को यहां जीत मिली। 2009 से 2019 तक ये सीट फिर से कांग्रेस के कब्जे में है। 

बिहार के साथ ही देश के कुछ हिस्सों में उपचुनाव हो रहे हैं। मजबूत लोकतंत्र के लिए हर मतदाता का वोट जरूरी है। ये हर वोटर का दायित्व है कि वो मताधिकार का प्रयोग कर लोकतंत्र को समृद्ध करे।

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