सरकारी नौकरियां, बड़े संस्थानों में दाखिले; पैसे के दम पर ऐसे होता है कुछ भी खरीदने वाला खेल

बिहार में जो रैकेट हाथ आया उसे माफिया नहीं बल्कि आईआईटी और एनआईटी से निकले स्कॉलर्स चला रहे थे। रैकेट में अभी बड़े नाम सामने सामने नहीं आए हैं, लेकिन आशंका है कि इंटरस्टेट नेटवर्क में कोई बड़ा सफेदपोश हो।

Asianet News Hindi | Published : Aug 10, 2020 2:35 PM IST

पटना। बहुत सारे लोग हैं जो मेहनत करके हासिल करने में यकीन करते हैं। मगर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पैसे के जरिए बड़े संस्थानों में दाखिला और सरकारी नौकरियां खरीदना चाहते हैं। पटना में ऐसे ही खरीदारों के लिए काम करने वाले एक हाई प्रोफाइल रैकेट का पता चला है। 

लोग हैरान हो सकते हैं कि रैकेट को कोई माफिया नहीं बल्कि आईआईटी और एनआईटी से निकले स्कॉलर्स चला रहे थे। रैकेट में अभी बड़े नाम सामने सामने नहीं आए हैं, लेकिन आशंका है कि इंटरस्टेट नेटवर्क में कोई बड़ा सफेदपोश हो। 

#चार लेवल पर काम करता है रैकेट 
पहले भी ऐसे रैकेट सामने आते थे मगर इक्का दुक्का मामलों को छोड़ दिया जाए तो इसे ऑपरेट करने वालों में आईआईटी और एनआईटी जैसे सम्मानित बड़े संस्थानों के पासआउट नहीं मिलते थे। वैसे अभी इस खेल में तमाम जानकारियां सामने नहीं आई हैं, लेकिन हम आपको इस खेल का पूरा गणित बताने की कोशिश करेंगे। पटना केस में भी इसी गणित के कुछ सूत्र खुले हैं और कुछ का आना बाकी है। खेल को इसके अलग-अलग लेवल्स से समझा जा सकता है। मोटे तौर पर इस पूरे खेल में पांच स्तर होते हैं। 

#बड़ी मछली संरक्षक 
सबसे निचले स्तर पर दाखिला या नौकरी चाहने वाले छात्र या उनके माता-पिता यानी बायर, उसके ऊपर एक मिडिएटर यानी सेलर, उसके ऊपर फिक्सर और आयोग के क्लर्क/ परीक्षा सेंटर/ टैलेंट और सबसे ऊपर संरक्षक यानी सरगना होता है। मिडिएटर सेलर का काम इंडिविजुअल होता है और कई बार कोचिंग सेंटर के मालिक भी इसमें शामिल होते हैं। फिक्सर ही सारी चीजें सेट करता है। संरक्षक कोई भी हो सकता है। सफ़ेद कॉलर एजुकेशन माफिया, बड़ा अफसर या पॉलिटिशियन। इस खेल में कभी कभार ही बड़ी मछलियां हाथ आती हैं। पुलिस ने जिन लोगों को अरेस्ट किया है वो तीसरे लेवल के यानी फिक्सर हैं। (पुलिस के कार्रवाई की खबर यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं)

 

#बेईमानी के धंधे में भरोसा बड़ी शर्त 
बेईमानी के इस धंधे का आधार भी एक-दूसरे पर भरोसा करना है। कहीं कुछ लिखा पढ़ी नहीं होती है। दाखिले या नौकरी के लिए कोई लड़का सबसे पहले दलाल के संपर्क में आता है। दलाल अपने स्तर पर जांच परख के बाद किसी पार्टी को फिक्सर से मिलवाता है। डील के बाद ज़्यादातर पूरा पेमेंट करना होता है। मगर कई बार पेमेंट दो हिस्सों में भी किया जाता है। आधा काम से पहले और बाकी बाद में। 

#काम से पहले ही पेमेंट होता है पैसा 
फिक्सर से ऊपर का जो नेटवर्क होता है उसे काम से पहले ही पूरा पेमेंट मिलता है। जाहिर सी बात है कि मोटे पैसे का लेनदेन भरोसेमंद लोगों के साथ ही किया जाता है। यही वजह है कि दोस्त या रिश्तेदारों को साथ लेकर काम किया जाता है। पटना केस में भी फिक्सर उज्ज्वल और अतुल रिश्तेदार हैं। उनके कुछ और दोस्तों का भी कनेक्शन सामने आ रहा है। जिसकी जांच जारी है। इस पूरे खेल में सबसे मजेदार चीज ये है कि हर आदमी हर किसी के कॉन्टेक्ट में नहीं होता। सेलर को परीक्षा सेंटर पर घपला करने वालों की जानकारी नहीं होती है और संरक्षक सीधे सेलर या पार्टी को नहीं जानता। 

#डील के बाद क्या होता है? 
इसे ऐसे समझिए। मान लीजिए कोई व्यक्ति किसी कॉलेज में दाखिला पैसों से खरीदना चाहता है। यह दो तरीकों से होता है। 1) संबंधित परीक्षा विभाग से आन्सरशीट वगैरह अदल-बदल कर। 2) पेपर आउट करना। 3) संबंधित छात्र की परीक्षा को किसी दूसरे (टैलेंट) के जरिए दिलवाना। रिस्की होने की वजह से पहला तरीका अब लगभग बंद हो चुका है। दूसरा तरीका भी होता है, लेकिन ये फूलप्रूफ नहीं है और भंडाफोड़ हो जाता है। 

 

#रैकेट कैसे काम करता है 
तीसरे तरीके का खेल बहुत दिलचस्प है। यह फॉर्म अप्लाई करने से ही शुरू हो जाते हैं। तीसरे तरीके में लगभग सारा खेल परीक्षा सेंटर्स का होता है। संबंधित परीक्षाओं के लिए फिक्सर अपने कैंडिडेट को मनचाहे सेंटर्स में परीक्षा अलॉट कराता है। बायर कैंडिडेट की जगह फिक्सर का 'टैलेंट' आसानी से परीक्षा दे लेता है। कोई रिस्क भी नहीं होता। पूरा मामला पारदर्शी दिखता है। इसमें परीक्षा सेंटर्स संभालने वाले को भी एक हिस्सा मिलता है। गिरोह का काम अंतरराज्यीय होता है। आपस में इंटरलिंक संरक्षक उसे ऑपरेट करते हैं। 

सबकुछ प्रक्रिया के तहत ऐसे किया जाता है कि इसमें शामिल होने के अलावा अन्य किसी को कानोकान खबर तक नहीं हो पाती कि कुछ घपला भी हुआ होगा। रिजल्ट निकलता है और संबंधित पास होता है। ऐसे मामले तब खुलते हैं जब पैसों के लेनदेन में गड़बड़ी हो जाती है या आपस में ही विवाद हो जाता है। एक और बात। फिक्सर ज्यादा लंबे वक्त तक काम नहीं कर पाता है। ज्यादा लंबा काम करना मतलब भंडाफोड़। यही वजह है कि इस बिजनेस का ऑपरेशन मोड बदल दिया जाता है। 

#पैरेंट्स को क्या करना चाहिए 
ऐसे मामले ज्यादा दिन तक छिप नहीं पाते। जब भंडाफोड़ का पता चलता है तब बच्चे का पूरा करियर ही दांव पर लग जाता है। कई उदाहरण हैं जिसमें जेल तक जाना पड़ा है। पैसे तो डूबते ही हैं। इसलिए छात्रों के माता-पिता को कभी भी ऐसे रैकेट के चंगुल में नहीं फंसना चाहिए। अगर कोई संपर्क करे तो इस बारे में पुलिस को इन्फॉर्म करना चाहिए। 

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