सस्पेंस की कमी और एक्शन सीन्स में है उतार-चढ़ाव, इन वजहों से लोगों को कम पसंद आई 'खुदा हाफिज'

विद्युत जामवाल स्टारर फिल्म 'खुदा हाफिज' 14 अगस्त को रिलीज की जा चुकी है। इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया गया। साल 2008 की मंदी के बैकड्रॉप में सेट ये फिल्म सच्ची घटना से प्रेरित है। इसकी कहानी लखनऊ के शादीशुदा दंपत्ति समीर और नरगिस की है।

मुंबई. विद्युत जामवाल स्टारर फिल्म 'खुदा हाफिज' 14 अगस्त को रिलीज की जा चुकी है। इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया गया। साल 2008 की मंदी के बैकड्रॉप में सेट ये फिल्म सच्ची घटना से प्रेरित है। इसकी कहानी लखनऊ के शादीशुदा दंपत्ति समीर और नरगिस की है। जॉब की तलाश में नरगिस का किरदार प्ले कर रही शिवालिका नोमान जाती हैं और वहां पर वो देह व्यापार के गिरोह का शिकार हो जाती है। पत्नी का प्यार विद्युत (समीर) को विदेशी सरजमीं पर खींच लाता है यहां शुरू होती है नरगिस को भारत वापस लाने की कहानी। 

रियल स्टोरी पर आधारित है फिल्म

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'खुदा हाफिज' जैसी फिल्म की कहानियों को तकनीकी तौर पर ‘हाई एंड कॉन्‍सेप्‍ट’ कहा जाता है। साथ ही यह कहानी सच्‍ची घटना से प्रेरित है। हैदराबाद के एक कपल के साथ ऐसा हुआ था। वहां भी युवक एक खाड़ी मुल्‍क से अपनी पत्‍नी को वापस लाने में कामयाब हुआ था। उस युवक के विद्युत जामवाल जैसे यकीनन डोले शोले नहीं रहे होंगे। लेकिन वो उस मुल्क की रक्षा और न्याय व्यवस्था की मदद से अपनी पत्नी को वापस लाने में सफल रहा होगा। मगर यहां तो समीर दुश्मनों को धूल चटा कर नरगिस को वापस लाता है।  

कहीं-कहीं निराश करती है फिल्म 

'खुदा हाफिज' का टॉपिक तो लार्जर दैन लाइफ है, पर इसका ट्रीटमेंट औसत है, फिल्म की यही चीज थोड़ा निराश करती है। नौकरियों का लालच देकर युवतियों को देह व्‍यापार में झोंकने वालों का जाल देश विदेश हर जगह फैला हुआ है। उस कारोबार के संचालक प्रभावशाली होते हैं। उनकी पहुंच पुलिस और आर्मी तक होती है। वे हमेशा हुक्‍के और सिगरेट के कश की आगोश में होते हैं। विदेशी सरजमीं पर कोई ऐसा दोस्‍त मिलता है, जो हीरो की मदद करता है। पुलिस पहले तंग करती है, फिर हेल्‍प भी।

फिल्म में है सस्पेंस की कमी

फिल्म में सस्पेंस की कमी साफतौर से झलकती है, जो दर्शकों को फिल्म की कहानी से जोड़े रखने में असफल होती है। पूरा बोझ विद्युत और विदेश में समीर की मदद करने वाले उस्‍मान यानी अन्‍नू कपूर पर है। आगे चलकर वह फैज अबू मलिक और तमीना अल हामिद में बंटती है। नरगिस पूरी फिल्‍म में होकर भी कैमियो सी बन पड़ी हैं।

एक्शन सीन्स में उतार-चढ़ाव

फिल्म में कहीं-कहीं एक्शन सीन्स में उतार-चढ़ाव देखने के लिए मिलता है। देह व्‍यापार के सरगना इजक रेगिनी की लंका तक समीर बड़ी आसानी से पहुंचता तो जाता है। लेकिन, डायरेक्‍टर फारुख कबीर इसे सधी हुई थ्रिलर नहीं बना पाते। समीर के तौर पर विद्युत से आधे अधूरे आम आदमियों वाले एक्‍शन करवाए हैं तो कभी कभार वही टिपिकल एक्‍शन के अवतार विद्युत जामवाल के तौर पर दिखाया है। नरगिस की खोज आधे में आम आदमी के नजरिए से तो आधे में रैंबो स्‍टाइल में।

फिल्म के गाने दिल को छू जाते हैं

फिल्म के गाने अच्‍छे बन पड़े हैं। खासकर ‘एहसास की जुबान बन गए, आप हमारी जान बन गए’। नोमान और बैतूसेफ को उज्‍बेकिस्‍तान में रीक्रिएट किया गया है, पर वहां की खूबसूरती और बंजरपन को कैप्‍चर कर पाने में सिनेमैटोग्राफर चूक गए हैं। लगा है कि जल्दबाजी में शॉट टेकिंग ली गई है। कुल मिलाकर देह व्‍यापार जैसे मसले की ट्रीममेंट सतही कर दी गई है। एक संदेश है फिल्‍म में कि प्‍यार सच्‍चा हो तो मंदी हो या कोई और मुसीबत, जीत मुहब्‍बत की ही होती है।

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