शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार दोपहर निधन हो गया था। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में 99 साल की उम्र में वे ब्रह्मलीन हुए। उनके निधन के बाद दो पीठों पर उनके उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई है।
करियर डेस्क : जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (Shankaracharya Swarupanand Saraswati) के ब्रह्मलीन होने के बाद उनके उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई है। स्वामी स्वरूपानंद ज्योतिष पीठ और द्वारकाशारदा पीठ के शंकराचार्य थे। इसलिए ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के नए शंकराचार्य काशी के स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती (Swami Avimukteshwaranand Saraswati) बनाए गए हैं। वहीं, स्वामी सदानंद द्वारका शारदा पीठ के उत्तराधिकारी बनाए गए हैं।
गांव से प्राइमरी एजुकेशन
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का जन्म उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के प्रतापगढ़ (Pratapgarh) जिले के पट्टी तहसील में एक छोटे से गांव ब्राह्मणपुर में हुआ था। 15 अगस्त 1969 को पंडित राम सुमेर पांडेय और अनारा देवी के घर अविमुक्तेश्वरानंद का जन्म हुआ। माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। अविमुक्तेश्वरानंद का बचपन का नाम उमाशंकर है। गांव के प्राइमरी स्कूल से उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। जब 9 साल की उम्र हुई तो परिवार से आज्ञा लेकर वे गुजरात चले गए और वहां धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के शिष्य ब्रह्मचारी रामचैतन्य के सानिध्य में गुरुकुल में रहकर संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की।
काशी आगमन
स्वामी करपात्री जी की तबीयत जब ठीक नहीं थी तब ब्रह्मचारी रामचैतन्य जी का काशी आगमन हुआ। उन्हीं के साथ वे भी काशी चले आए। करपात्री जी के ब्रह्मलीन होने तक उनकी सेवा की और फिर वहीं, पुरी पीठाधीश्वर स्वामी निरंजन-देवतीर्थ और ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का सानिध्य प्राप्त हुआ।
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री-आचार्य की शिक्षा
फिर स्वरुपानंद सरस्वती की प्रेरणा पाकर अविमुक्तेश्वरानंद नव्य व्याकरण विषय से काशी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में आचार्य की शिक्षा ली। यहीं से उन्होंने शास्त्री की शिक्षा भी ग्रहण की। छात्र राजनीति में वे काफी सक्रिय रहे। वे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के महामंत्री भी चुने गए थे। 15 अप्रैल, 2003 को उमाशंकर ने दंड संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती बने। इसके बाद से ही केदारघाट के श्रीविद्यामठ की कमान इनके ही हाथ रही।
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