बेरोजगारी और बेसिक स्किल्स की कमी हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए है बड़ी चुनौती

आज जब दुनिया में अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सहारा लिया जा रहा है, भारत में बच्चों की ठीक से प्राथमिक शिक्षा भी नहीं मिल पा रही है। 

Abhinav Khare | Published : Feb 28, 2020 10:25 AM IST

जब मैं ज्यूरिख में स्टूडेंट था, वहां के बेहतरीन पब्लिक एजुकेशन सिस्टम को देख कर बहुत प्रभावित हुआ। स्विट्जरलैंड में सरकार शिक्षा व्यवस्था में भारी निवेश करती है। वहां शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 5.6 प्रतिशत खर्च किया जाता है। प्रति व्यक्ति शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाला स्विट्जरलैंड दुनिया का पहला देश है। वहां की शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी खासियत है स्टूडेंट्स को स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक में व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाना। इससे स्टूडेंट्स में इनोवेशन की प्रवृत्ति और क्रिएटिविटी बढ़ती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि वहां बेरोजगारी नहीं के बराबर है और मल्टीनेशनल कंपनियां स्टूडेंट्स को सीधे यूनिवर्सिटी से ही प्लेसमेंट दे देती हैं। इसी तरह से मुझे भी प्लेसमेंट मिली थी। स्विट्जरलैंड की इस बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था का फायदा मुझे मिला। 

मेरी शिक्षा लंबे समय तक भारत में ही हुई। यहां शिक्षा पाने के अनुभव को बढ़िया नहीं कहा जा सकता है। अब इस बात को समझना जरूरी है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था के साथ काफी समस्याएं हैं। हमारे देश के सरकारी स्कूल इसके प्रमाण हैं। भारत का संविधान सभी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार देता है। लेकिन पाठ्यक्रम और शिक्षा का स्तर बेहद निम्न है। 

हम स्टूडेंट्स की जरूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। लगभग सभी राज्यों में स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर कमजोर है और शिक्षक भी बच्चों को सही ढंग से पढ़ा पाने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। करीब 30 प्रतिशत से भी ज्यादा सरकारी शिक्षकों के पास उपयुक्त डिग्री नहीं है। 40 प्रतिशत से ज्यादा सरकारी स्कूलों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और जरूरी सुविधाओं जैसे इलेक्ट्रिसिटी का अभाव है। हम ऐसी कई खबरें पढ़ते हैं कि स्कूलों में बच्चों को फर्श की सफाई करने के लिए कहा जाता है, उनसे खाना परोसने को कहा जाता है और कड़ी सजा भी दी जाती है। लेकिन जब शिक्षा की बात आती है, बच्चों को यह सही तरीके से नहीं मिल पाती है। पिछले दशक के दौरान हमने देखा है कि प्राइमरी एजुकेशन में सिर्फ बच्चों के किताब पढ़ने और सामान्य गणित सीखने पर ही जोर दिया जाता है। लेकिन यह भी काम भी तरीके से नहीं हो पाता, क्योंकि भारत में करीब आधा से ज्यादा बच्चे ग्रेड 2 की किताबों को पढ़ पाने और जोड़-घटाव कर पाने में भी सक्षम नहीं हैं। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) 2019 के अनुसार, ग्रेड 1 के काफी बच्चे गणित के मूलभूत सवालों को हल कर पाने लायक योग्यता नहीं रखते। यहां तक कि 3 और 5 जोड़ने पर कितने होते हैं, इसका जवाब भी 25 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे नहीं दे सके। जोड़-घटाव से जुड़े दूसरे कुछ कठिन सवालों का जवाब दे पाना उनके लिए असंभव हो गया। 

ऐतिहासिक महत्व का राइट टू एजुकेशन (RTE) एक्ट, 2009 यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के अनुच्छेद 21-ए के तहत शिक्षा का मूलभूत अधिकार सभी को है, लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था को सफल नहीं कहा जा सकता। इस एक्ट के सेक्शन-3 में साफ कहा गया है कि 6 से लेकर 14 साल के हर बच्चे को शिक्षा दिया जाना जरूरी है, लेकिन अभी पूरा जोर सिर्फ बच्चों के स्कूलों में एडिमशन पर है, ताकि लक्ष्य को हासिल किया जा सके। पर यह लक्ष्य शिक्षा नहीं है। शिक्षक ठीक से प्रशिक्षित नहीं हैं। यहां तक कि उन्हें अपने विषय की भी जानकारी नहीं है। शिक्षक स्टूडेंट्स की जरूरतों को नहीं समझते और स्टूडेंट्स भी परीक्षा पास करने के लिए नोट्स का सहारा लेते हैं। 

आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ 9.5 प्रतिशत स्कूल ही राइट टू एजुकेशन के नियमों को लागू कर पाए हैं। राइट टू एजुकेशन एक्ट के सेक्शन-7 के अनुसार, सरकारी स्कूलों में शिक्षा और दूसरी जरूरी आवश्यकताओं के लिए फंड सरकार द्वारा मुहैया कराया जाएगा, लेकिन जब खर्च करने का सवाल सामने आता है तो सरकार इसमें कंजूसी वाला रवैया दिखाती है। 1960 में ही कोठारी आयोग ने सुझाव दिया था कि सरकार को जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए, लेकिन आज की तारीख में शिक्षा पर 4 प्रतिशत से भी कम खर्च किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था के अच्छे परिणाम सामने आएंगे। 

बहरहाल, राइट टू एजुकेशन को भी शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने में कारगर नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसमें सिर्फ 6 से 14 साल के बच्चों को शामिल किया गया है और इससे ऊपर बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। रोजगार के आंकड़ों पर एक नजर डालने से यह बात और भी साफ होगी कि हमारी शिक्षा व्यवस्था कितनी बदहाल है। 40 प्रतिशत युवाओं के पास कोई रोजगार नहीं है। इनमें ऐसे युवाओं की संख्या भी कम नहीं है, जिनके पास मास्टर डिग्री है। शिक्षा व्यवस्था की विफलता इस बात से समझी जा सकती है कि इससे रोजगार मिल पाना संभव नहीं हो पा रहा। ऊंची डिग्री होने के बावजूद युवा बहुत कम सैलरी पर काम करने को मजबूर हो रहे हैं और जहां वे काम करते हैं, वहां भी उनकी नौकरी की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं, क्योंकि कंपनियां 'हायर एंड फायर' की नीति अपनाती हैं। इससे समाज में गरीबी बढ़ती है। शिक्षा सबों के लिए एक मूलभूत जरूरत है, ताकि लोग आत्मसम्मान के साथ जिंदगी जी सकें। शिक्षा देने की व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। 

शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए कोशिश करना बहुत जरूरी है। यह कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं। हमें यह कोशिश करनी होगी कि शिक्षा तक सबों की पहुंच हो और इसका विस्तार हो, खास कर प्राथमिक शिक्षा का। स्कूलों और चाइल्ड केयर नेटवर्क को मजबूत बनाने के साथ उनके प्रसार की जरूरत है। हमें एक साथ मिल कर इस बात पर ध्यान देना होगा कि बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ सामाजिक-भावनात्मक लगाव और एकेडमिक योग्यता भी बढ़े। 

कौन हैं अभिनव खरे
अभिनव खरे एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीइओ हैं और 'डीप डाइव विद एके' नाम के डेली शो के होस्ट भी हैं। उनके पास किताबों और गैजेट्स का बेहतरीन कलेक्शन है। उन्होंने दुनिया के करीब 100 से भी ज्यादा शहरों की यात्रा की है। वे एक टेक आंत्रप्रेन्योर हैं और पॉलिसी, टेक्नोलॉजी. इकोनॉमी और प्राचीन भारतीय दर्शन में गहरी रुचि रखते हैं। उन्होंने ज्यूरिख से इंजीनियरिंग में एमएस की डिग्री हासिल की है और लंदन बिजनेस स्कूल से फाइनेंस में एमबीए हैं। 

Share this article
click me!