इस बार चुनाव जीत के लिए कांग्रेस ने नए जिले का दांव चला है। सीएम बघेल ने वादा किया है कि कांग्रेस अगर जीतती है तो रिजल्ट के अगले ही दिन खैरागढ़-छुईखदान-गंडई नया जिला बना दिया जाएगा। हालांकि बीजेपी इसे सिर्फ चुनावी वादा बता रही है।
राजनांदगांव : छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में इन दिनों खैरागढ़ विधानसभा चुनाव (Khairagarh By-Election) को लेकर सियासत गर्म है। आज प्रचार का आखिरी दिन है। 12 अप्रैल को वोटिंग होगी और चार दिन बाद 16 अप्रैल को नतीजों से साफ हो जाएगा कि कांग्रेस सरकार का दबदबा बरकरार है या फिर इस बार जातीय समीकरण को भाजपा (BJP) ने मात दे दी है। इस बार दोनों दलों की किस्मत दांव पर है। जीत के लिए दोनों ही सियासी दलों ने हर मोर्चे पर रणनीति बनाई गई है। दिग्गज नेताओं ने यहां मैदान संभाला है।
क्या है जातीय समीकरण
खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र की बात करें तो यहां दो हिस्सों में आबादी को बांटा जाता है। पहला मैदानी, दूसरा पहाड़ी। मैदानी इलाका खैरागढ़, छुईखदान और गंडई के ज्यादातर हिस्सों को मिलाकर बना है, जबकि पहाड़ी साल्हेवारा क्षेत्र में आता है। यहां खैरागढ़ से जालबांधा तक लोधी समाज का दबदबा है तो छुईखदान से गंडई तक सतनामी समाज के लोग ज्यादा संख्या में हैं। पहाड़ी इलाकें में आदिवासी समाज की संख्या ज्यादा है। यहां हर चुनाव लगभग-लगभग जातीय-सामाजिक ध्रुवीकरण के नाम पर ही केंद्रीत रहा है। इस बार उपचुनाव में भी इसी को साधने की कोशिश की गई है।
2018 में नतीजों पर किसका असर
पिछले चुनाव में यहां कांग्रेस और बीजेपी दोनों को हार मिली थी। 2018 में तब देवव्रत सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर जनता कांग्रेस के चिन्ह पर चुनाव लड़ा और बीजेपी की कोमल जंघेल को करारी हार दी। यहां कांग्रेस को सिर्फ 31 हजार वोट ही मिले जबकि बीजेपी का दावा था कि अगर लोधी वोट न बंटते तो उसे कोई नहीं हरा सकता था। कहा भी गया था कि उस चुनाव में लोधी वोटबैंक के बंटवारे जीत बीजेपी की झोली से छिटक गई थी।
अब तक के चुनावों पर नजर
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद साल 2003 में यहां पहली बार चुनाव हुए। तब लेकर अब तक अगर खैरागढ़़ विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो यहां राजघराने का अच्छा-खासा असर रहा है। जनता ने अपने राजा को हर बार ही जीत का आशीर्वाद दिया है। लोधी समाज के वोट ज्यादातर राजा के पक्ष में ही गए हैं। साल 2003 में कांग्रेस की तरफ से देवव्रत सिंह और भाजपा की तरफ से सिद्धार्थ सिंह मैदान में उतरे, तब देवव्रत ने 17 हजार 907 वोट से चुनाव में जीत दर्ज की। चार साल बाद 2007 में उपचुनाव की स्थिति बनी तब भाजपा ने कोमल जंघेल को टिकट दिया, जिन्होंने देवव्रत सिंह की पत्नी पद्मा सिंह को शिकस्त दी। 2008 के चुनाव में कांग्रेस ने मोतीलाल जंघेल को टिकट दिया जो लोधी समाज से आते हैं लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2013 के कांग्रेस के टिकट से गिरवर जंघेल चुनाव लड़े और उन्होंने बीजेपी की कोमल जंघेल को हराया। यानी यहां हमेशा से ही राजपरिवार को वोट मिलता रहा है।
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