लवली आनंद यानी 'भाभीजी', रैलियों में इनके ग्लैमर के आगे फीके पड़ गए थे लालू; परेशान हो गई थी BJP

पटना। एक जमाने में बिहार की राजनीति में जातीय गोलबंदी का काफी बोलबाला था। मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के लागू होने के साथ राज्य में दलित-पिछड़ों की राजनीति जनता दल के नेताओं- लालू यादव (Lalu Yadav), रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) और नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व में मजबूत हो रही थी। हालांकि जनता दल से विधायक बनकर राजनीति करने वाले आनंद मोहन (Anand Mohan) ने बाद में कास्ट रिज़र्वेशन का विरोध कर सवर्ण नेता के रूप में अपनी मजबूत पहचान बनाई थी। लेकिन वक्त के साथ आनंद मोहन का जादू खत्म हो गया और उनकी राजनीति शिवहर तक सिमट कर रह गई। ताज्जुब होगा, लेकिन एक दौर में उनकी लोकप्रियता ऐसी थी कि उन्हें भावी मुख्यमंत्री समझा जाता था। 

Asianet News Hindi | Published : Sep 19, 2020 12:54 PM IST / Updated: Sep 28 2020, 02:57 PM IST
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लवली आनंद यानी 'भाभीजी', रैलियों में इनके ग्लैमर के आगे फीके पड़ गए थे लालू; परेशान हो गई थी BJP

जब बिहार में जातीय संघर्ष चरम पर था और जातीय सेनाओं का बोलबाला था उस दौर में आनंद मोहन और उनकी पत्नी का जादू चरम पर था। आनंद मोहन राजपूत हैं और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह (Chandrashekhar Singh) समेत देश के तमाम बड़े राजपूत नेताओं के साथ उनके निजी रिश्ते थे। उनकी पत्नी का नाम लवली आनंद (Lovely Anand) था। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में राज्य ने पहली बार लवली का जादू देखा था। 

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लवली आनंद भाभीजी के उपनाम से मशहूर थीं। उस दौर में जनसभाओं में उनको सुनने के लिए लोगों की भीड़ देखते ही बनती थी। रैलियों में बेतहाशा लोग उन्हें सुनने आते थे। लालू जैसे दिग्गज नेताओं की रैली भी लवली आनंद की रैली के आगे फीकी नजर आती। सवर्ण वोटबैंक पर राजनीति कर रही बीजेपी के दिग्गज नेताओं के पास भी "भाभीजी" का कोई तोड़ नहीं था। 
 

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एक ऐसा वक्त भी आया जब आनंद मोहन ने "बिहार पीपुल्‍स पार्टी" के रूप में अपना ही दल बना लिया। लवली भी पति के साथ राजनीतिक रूप से सक्रिय थीं। माना जाता है कि पहली बार लवली ने ही बिहार की राजनीति में ग्लैमर का तड़का लगाया। बाहुबली आनंद मोहन ने अलग-अलग पार्टियों से राजनीति की। विधानसभा और संसद में भी पहुंचे।
 

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हालांकि रैलियों में जुटने वाली भीड़ को आनंद भुना नहीं पाए। 1993 में बनी बिहार पीपुल्स पार्टी ने 1995 के चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया था। यहां तक कि लालू से अलग होकर बनी नीतीश की समता पार्टी से भी बेहतर प्रदर्शन था। बिहार की राजनीति का वो दौर लालू का था। लालू के सामने अचानक ही युवा आनंद मोहन को लोग राज्य का भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे। 

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1994 से 2000 तक बिहार की राजनीति में आनंद मोहन और उनकी पत्नी लवली आनंद का जलवा दिखता था। लेकिन बीजेपी (BJP) के उभार के साथ आनंद मोहन का जलवा फीका पड़ता गया। इस दौर में आनंद मोहन ने कई पार्टियां भी बदली। 1996 में समता पार्टी (Samata Party) से जबकि 1998 में आरजेडी (RJD) से सांसद बने थे।

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इससे पहले 1990 में जनता दल के टिकट पर विधायक बने थे। 1994 में लवली आनंद ने वैशाली लोकसभा का उपचुनाव जीता था। लवली एक बार सांसद और एक बार विधायक बन पाईं। अब आनंद परिवार का असर शिवहर तक सिमट कर रह गया है। 

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लवली आनंद फिलहाल "फ्रेंड्स ऑफ आनंद" नाम के एक समूह के जरिए पति की रिहाई की कोशिश में हैं। आनंद के ऊपर 1994 में गोपालगंज के जिला मजिस्ट्रेट जी कृष्णैया की हत्या का दोष सिद्ध हुआ है। ये मामला काफी चर्चित हुआ था। 

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2007 में इसी मामले मे पटना हाईकोर्ट ने आनंद को मौत की सजा सुनाई थी। आजाद भारत के इतिहास में आनंद मोहन पहले ऐसे राजनेता हैं जिन्हें मौत की सजा मिली। आनंद मोहन ने सुप्रीम कोर्ट में भी मौत की सजा के खिलाफ अपील की थी लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया। हालांकि बाद में उनकी मौत की सजा को आजीवन सश्रम कारावास में बदल दिया गया। 

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जन अधिकार पार्टी चीफ पप्पू यादव (Pappu Yadav) के साथ आनंद मोहन की खूनी अदावत भी देशभर में खूब सुर्खियां बटोरी हैं। आनंद ने कई किताबें लिखी हैं। फोटो में शिवपाल के साथ लवली आनंद। सभी तस्वीरें "फ्रेंड्स ऑफ आनंद" फेसबुक पेज से। 

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