वह 2003 का साल था, जब तपस्विनी दूसरी क्लास में पढ़ रही थीं। एक वाकया उनकी जिंदगी में अंधेरा बिछा गया। ओडिशा के एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर की लापरवाही के कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गई। तभी उन्होंने सोच लिया था कि वह अपने नाम को सार्थक करेंगी। बड़ा हासिल करने के लिए तपस्या करेंगी, साधना करेंगी, खुद को हर तरह से साधेंगी। तपस्विनी दास बताती हैं कि 2003 की उस भयानक आपबीती ने उन्हे एक तरह से तोड़कर रख दिया था। उनके माता-पिता भी उससे लंबे समय तक यह सोचकर परेशान रहे कि बेटी अब क्या करेगी, कैसे पढ़े-लिखेगी, कैसे उसका शादी-ब्याह होगा?