एक व्यक्ति, जिसका मैंने बयान दर्ज किया कि वह गैस लीकेज के समय अपनी मां-पत्नि और तीन बच्चों के साथ रात को भीड़ के साथ भागा था। लेकिन अंधाधुंध भागती हुई भीड़ में वह सड़क पर गिर गया। उसके ऊपर से भीड़ भागती रही। पैर बुरी तरह कुचल गया और वह बेहोश हो गया। उसका परिवार बिछड़ गया। जब उसको होश आया तब वह भारी बोझ के नीचे दबा था, जिससे निकलने की भरसक कोशिश करने पर उसने पाया कि वह लाशों के ढेर मे दबा था।
दरअसल, लाशों को औऱ मरीज़ों को अस्पताल पहुंचाने वालों ने उसे मुर्दा समझ कर अस्पताल के मरचुरी (मुर्दाघर) में जमा कर दिया था जहां लाशों के ढेर लगे थे और लगातार आने वाली लाशों का अम्बार उस पर लग गया था। उसका एक पैर टूट चुका था। फिर भी वह अपनी पूरी ताक़त इकट्ठी कर घिसटता हुआ गेट तक पहुंचा, जो बंद था। दरवाज़ा पीटने पर दरवाज़ा खोलने वाला व्यक्ति चीख़ मारता हुआ भाग गया। इसने चिल्लाने व पुकारने की कोशिश की और आख़िर फिर बेहोश हो गया।
जब पुन: होश आया तब वह अस्पताल के बेड पर था। उसका एक पैर ऑपरेशन से काटा जा चुका था। अब अस्पताल से छुट्टी करा के वह अपने परिवार को तलाश रहा था। मृतकों की सूची में उसकी मां को उसने ढूंढ लिया था लेकिन उसकी पत्नि और बच्चों का कुछ पता नहीं चला। वह जब घर से भागा था, तब घर खुला छूट गया था। जब वह वापिस घर गया, तो उसके घर का तमाम सामान चोरी हो चुका था। वह व्यक्ति रोता जाता था और खांसी से बेहाल हो रहा था।
सुबह 9 बजे से शाम तक पसीने-पसीने हम भीड़ से घिरे रहते। इस तरह के बयान कलमबंद करते रहते। लोग हमारे चारों तरफ़ खांसते और रोते रहते। उनकी लाल आंखों से पानी बहता रहता। कभी वेरीफ़िकेशन के लिए गैस प्रभावित बस्तियों में घूमते। धीरे-धीरे मेरी आंखें भी लाल रहने लगीं। उनसे पानी बहने लगा। खांसी भी धीरे-धीरे बढ़ती चली गई। हाथों पर चकत्ते से पड़ने लगे, जिनमें खुजली भी होती थी। अधिक बीमार हो जाने पर मुझे दो माह बाद अवकाश पर जाना पड़ा।
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