ये हैं वो 5 महिलाएं, जिनके आगे अंग्रेजों के भी छूट जाते थे छक्के
ये वो वीरांगनाएं हैं, जिनकी चर्चा आजकल कम ही होती है। या फिर यूं कहें कि आजकल लोग इनके बारे में भूल चुके हैं। हम रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा से तो अच्छी तरह परिचित हैं, लेकिन ऐसी कई वीरांगनाएं हैं, जिनके बलिदान और योगदान के बारे में नहीं पता है।
Asianet News Hindi | Published : Aug 13, 2019 11:58 AM IST / Updated: Aug 15 2019, 10:33 AM IST
पंजाब: भारत अनेक वीर-वीरांगनाओं का देश है। ऐसी अनेकों वीरांगनाएं और वीर हुए जो अपना पराक्रम और शौर्य दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। 857 के पहले से लेकर 1947 में देश आजाद होने तक कुछ महिलाओं ने भी अहम भूमिका निभाई है। यह वह महिलांए है जो अपनी अंतिम सांस तक डटी रहीं। अन्य देशों के आक्रमणों को सहा और। इस मिट्टी पर अनेक वीरों ने जन्म लिया है। लेकिन ये धरती सिर्फ सूरमाओं की ही धरती नहीं है। इस धरती पर कई वीरांगनाओं ने भी जन्म लिया है और समय-समय पर उन्होंने अपनी वीरता भी दिखाई है। जब आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार बनी तो उस वक्त भी भारत के नींव निर्माण में उन्होंने अपना शत-प्रतिशत योगदान दिया।
कित्तूर की रानी चेन्नम्मा : रानी चेन्नम्मा उन भारतीय शासकों में से हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए सबसे पहली लड़ाई लड़ी थी। दक्षिण के राज्य कर्नाटक में सेना के साथ रानी, अंग्रेजों से लड़ाई करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई। उन्हें कर्नाटक की सबसे बहादुर महिला के नाम से जाना जाता है।
दुर्गा बाई देशमुख: दुर्गा बाई गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थीं। उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। भारत की आजादी में एक वकील, समाजिक कार्यकर्ता, और एक राजनेता के तौर पर सक्रिय भूमिका निभाई।
अरुणा आसफ अली : अरुणा न सिर्फ स्वतंत्रता के लिए लड़ीं बल्कि तिहाड़ जेल के राजनैतिक कैदियों के अधिकारों की लड़ाई भी लड़ी। उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया और लोगों को अपने साथ जोड़ा। उनकी लड़ाई के चलते उन्हें कैद कर लिया गया था। लेकिन जेल की दीवारें भी उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने से नहीं रोक पाई। उन्होंने जेल में रह कर ही कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए विरोध प्रदर्शन और हड़तालें की।
भीकाजी कामा : मैडम कामा को उनके क्रांतिकारी भाषणों के लिए और भारत और विदेश दोनों में वकालत की कला के लिए जाना जाता है। वरिष्ठ नेता की तरह इन्होंने महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। 22 अगस्त 1907, स्टटगार्ट, जर्मनी में अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट सम्मेलन में, उन्होंने झंडा फहराया जिसे उन्होंने आजादी का प्रथम ध्वज कहा गया है।
सुचेता कृपलानी: 'भारत छोड़ो' जैसे आंदोलन में शामिल रहने वाली सुचेता, गांधीजी के करीबियों में से एक थीं। उस दौरान वे कई भारतीय महिलाओं के लिए रोल मॉडल भी रहीं। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया। इन्होंने 1946-47 में विभाजन के दंगों के दौरान सांप्रदायिक तनाव की शांती में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान सभा में 'वंदे मातरम'भी गाया था। सुचेता कृपलानी ने बिना हथियार के ही अंग्रेजों को हमेशा परेशान करके रखा। आजादी के बाद वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं।