यहां अंतिम संस्कार में इंसानी दिमाग और मांस खाने की प्रथा, फायदा जानकर मेडिकल टीम भी हुई हैरान

हर समुदाय में अंतिम संस्कार को लेकर अलग-अलग प्रथाएं निभाई जाती है। लेकिन शायद ही किसी ने सुना होगा कि अंतिम संस्कार के दौरान लोग इंसानी मांस खाते हैं। खासकर मृतक का दिमाग। पढ़ कर कांप गए ना। आइए उस जनजाति के बारे में बताते हैं।

Nitu Kumari | Published : Jan 5, 2023 4:49 AM IST / Updated: Jan 05 2023, 10:22 AM IST

हेल्थ डेस्क. 'दिमाग खाना' हमारे यहां भले ही कहावत हो, लेकिन एक ऐसी जनजाति है जहां पर अंतिम संस्कार में दिमाग खाने की प्रथा थी। पापुआ न्यू गिनी में करीब 312 जनजातियां रहती हैं। जिनके अजीबो गरीब रिवाज होते हैं। इसी में से एक जनजाति में इंसान का मांस और दिमाग खाने की प्रथा थी। जिसकी वजह से वहां के लोगों में एक बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता विकिसत हो गई है। मेडिकल टीम इनपर जांच कर रही है.

ब्रिटेन और पापुआ न्यू गिनी के वैज्ञानिक ने फोर जनजाति (Fore Tribe) के लोगों पर शोध किया। इसमें पता चला कि आदिवासी जिनके आहार में मृतक के दिमाग शामिल था, उनमें कुरु नामक बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है। वहां के लोगों में इस बीमारी से लड़ने की आनुवंशिक प्रतिरोधक क्षमता (Genetic resistance) हो गई है। वैज्ञानिकों को इस शोध से पार्किंसंस रोग और डिमेंशिया जैसे 'प्रायन' रोगों के नए ट्रीटमेंट में मदद मिल सकती है।

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अंतिम संस्कार में मृतक के शरीर की होती थी दावत

फोर जनजाति में पहले जब अंतिम संस्कार होता था तो दावत के दौरान पुरुष मृतक का मांस खाते थे वहीं,महिलाएं उनका दिमाग। इसे प्रथा के जरिए लोग अपने प्रियजनों के प्रति सम्मान प्रकट करते थे। उनका कहना था कि अगर शरीर को दफनाया जाता है या किसी जगह पर रखा जाता है तो कीड़े खाते हैं। इससे अच्छा है कि शरीर को वो लोग खाएं जो उनसे प्यार करते हैं। 

कुरु नामक बीमारी से ग्रसित होने लगे लोग

मृतक के शरीर से दिमाग को निकालकर महिलाएं उसमें फर्न मिलातीं थी और उसे बांस में पकाया जाता था। शोध में कहा गया है कि ग्लॉब्लाडर छोड़कर वो लोग सबकुछ भूनकर खा जाते थे। लेकिन यह प्रथा इस समुदाय के लिए जानलेवा होती थी। क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि दिमाग में एक खतरनाक मॉलिक्यूल होता है, जो मौत का कारण बनता है। यहां के मेडिकल टीम ने देखा कि फोर जनजाति के कुछ लोग रहस्यमयी बीमारी से पीड़ित हो रहे थे। वो इतने कमजोर हो रहे थे कि चलने फिरने की अपनी क्षमता को खो देते थे। खाना भी बंद हो जाता था। जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती  थी। इस बीमारी को 'कुरु' नाम दिया गया। जिसका मतलब था 'डर से कांपना'। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो इस बीमारी की वजह से यहां पर हर साल इस जनजाति के करीब 2 प्रतिशत से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती थी।

जानवरों को मांस और हड्डी से मिले खाने पर ब्रिटिश सरकार ने लगाया बैन

मेडिकल शोध में पता चला कि 'प्रायन्स' नामक प्रोटीन की वजह से कई बीमारियां होती हैं जिसमें एक कुरू भी है। 'प्रायन्स'आमतौर पर सभी जीवित प्राणियों के शरीर में बनते हैं। लेकिन उन्हें डिफॉर्म भी किया जा सकता है जो अपने ही होस्ट के खिलाफ काम करने लगते हैं। डिफॉर्म होने पर प्रायन्स एक तरह का वायरस बन जाता है और शरीर पर हमला करके बीमारी फैलाता है। प्रायन रोग जिसे 'मैड काउ डिजीज' कहते हैं 1980 में मवेशियों में फैल गया था। 1986 में इसकी वजह से सैकडों जानवरों को मार देना पड़ता था। इसेक बाद 1990 में यह पालूत बिल्लियों में रोग हुआ। क्योंकि उन्होंने 'मैड काउ डिजीज' से पीड़ित मवेशियों का मांस खा लिया था। 1993 तक, 120,000 जानवरों को इस रोग से पीड़ित पाया गया। जिसे मारना पड़ा। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने जानवरों को मांस और हड्डी मिला हुआ खाना खिलाने पर बैन लगाना पड़ा।

फोर जनजाती में जेनेटिक प्रोटेक्शन हुआ विकिसत

जानवरों के बाद यह बीमारी इंसानों में भी देखने को मिले।हालांकि अब यह बीमारी काफी कम हो गई है।  नेचर जर्नल में प्रकाशित शोध के नतीजों के मुताबिक डिफॉर्म  'प्रायन्स' के खिलाफ अब एक तरह का जेनेटिक प्रोटेक्शन मौजूद हैं। 1950 के दशक में फोर आदिवासियों में मस्तिष्क खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कुरु के प्रकोप फैलने के बाद इस प्रथा को बंद करने का आदेश दिया गया था। जिसेक बाद से यह बीमारी यहां गायब होने लगी थी। लेकिन वैज्ञानिकों ने अब पता लगाया है कि यहां की जनजाति में कुरु और प्रायन की वजह से होने वाली अन्य बीमारियों के लिए आनुवंशिक प्रतिरोधक क्षमता का विकसित हो गया है। अब वैज्ञानिक इस जनजाति पर शोध कर रहे हैं ताकि दिमाग से जुड़ी दूसरी बीमारी जैसे अल्जाइमर और पार्किंसंस जैसी न्यूरोडीजेनेरेटिव का इलाज मिल सके।

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