भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो आदिवासी नेता तिरोत सिंह की बहादुरी को सभी भारतीय सलाम करते हैं। माना जाता है कि उनसे अंग्रेजी सेना भी खौफ खाती थी।
नई दिल्ली. आज जिसे हम म्यांमार करते हैं, पहले उसका नाम बर्मा था। 19वीं सदी की शुरुआत में बर्मा पर विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेजों ने ब्रह्मपुत्र घाटी में प्रवेश किया। यह वही स्थान है जिसे वर्तमान में मेघालय के नाम से जाना जाता है। तब यहां की खासी पहाड़ियों पर कब्जा करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया था। लेकिन अंग्रेजों को पहाड़ियों में रहने वाले खासी आदिवासी लोगों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस प्रतिरोध का नेतृत्व करने वाले खासी मुखिया तिरोत सिंह थे। जिन्होंने अंग्रेजी सेना में भी खौफ पैदा कर दिया था।
स्थानीय शासकों के बीच मतभेदों का फायदा उठाना और अपने स्वयं के एजेंडे को लागू करना ही अंग्रेजों की सामान्य रणनीति थी। लेकिन ब्रिटिश एजेंट डेविड स्कॉट के इन प्रयासों का पर्दाफाश तिरोत सिंह ने किया। तिरोत सिंह ने 4 अप्रैल 1829 को ब्रिटिश गैरीसन पर खासी हमले का नेतृत्व किया था। तब दो ब्रिटिश अधिकारी मारे गए। इसके कारण अंग्रेजों ने भयंकर जवाबी हमला किया था, जिसके बाद ही आंग्ल-खासी युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों की सेना खासियों के खिलाफ राइफल और अन्य आधुनिक हथियारों से लैस थी। जबकि आदिवासियों के पास केवल तलवारें और धनुष-तीर ही थे। लेकिन उनकी उग्र इच्छाशक्ति, गुरिल्ला रणनीति और जंगलों और पहाड़ियों के कठिन इलाके के उनके ज्ञान ने अंग्रेजी सेना को डरा दिया था। यही कारण था कि यह युद्ध 4 साल तक चला।
धोखे से मिली तिरोत को हार
कहा जाता है कि अंत में तिरोत सिंह को उसके ही एक आदमी ने धोखा दिया। जिसने सोने के सिक्कों के बदले में अंग्रेजों को उसके ठिकाने के बारे में जानकारी दे दी और अंग्रेजों की बड़ी सेना ने तिरोत को घेर लिया। इस विश्वासघात की वजह से तिरोत सिंह को हार का सामना करना पड़ा। गंभीर रूप से घायल तिरोत को ढाका निर्वासित कर दिया गया था जहां 17 जुलाई 1935 को 33 वर्षीय तिरोत सिंह की मृत्यु हो गई। मेघालय के लोग हर 17 जुलाई को तिरोत दिवस के रूप में मनाते हैं।
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