India@75: मैडम कामा जिन्होंने भारत की आजादी के लिए कुर्बान किया जीवन, बनीं भारतीय क्रांति की जननी

पूरा भीखाजी रुस्तम कामा यानी मैडम कामा, जी हां, यही वह नाम था जिनसे ब्रिटिश सरकार भी खौफ खाती थी। अंग्रेजों ने मैडम कामा पर जुल्म किए वे उनकी हिम्मत के आगे हार गए। 
 

नई दिल्ली. टाटा, गोदरेज या हो वाडिया परिवार... ये सभी पारसी परिवार आजादी से पहले के दिनों से ही भारतीय उद्योग के दिग्गज रहे हैं। यह जोरास्ट्रियन समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो कई पीढ़ियों पहले फारस से भारत आए थे। उनके सदस्य भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में से रहे थे। इनमें मुख्य तौर पर दादाभाई नौरोजी, जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुरुआती अध्यक्षों में से थे। वहीं लंदन में भारत की स्वतंत्रता के लिए महान प्रचारक का काम करने वाली मैडम कामा जैसी महिलाएं भी थीं, जिन्होंने पहली बार विदेशी धरती पर भारतीय ध्वज फहराया। मितुबहन होर्मसजी भी रहे जो गांधी जी के साथ दांडी यात्रा में साथ में चले थे। 

कौन थीं मैडम कामा
भीखाजी रुस्तम कामा या मैडम कामा स्वतंत्रता सेनानी, महिला अधिकार कार्यकर्ता और कट्टर समाजवादी थीं। 1861 में बॉम्बे के एक धनी पारसी परिवार में जन्मी कामा कम उम्र से ही विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने लगी थीं। बंबई में अकाल और प्लेग की चपेट में आने पर उन्होंने स्वयंसेवक के रूप में काम किया। मैडम कामा भी प्लेग की चपेट में आ गईं और इलाज के लिए लंदन चली गईं। लंदन में वह नौरोजी से मिलीं। भारतीय स्वतंत्रता अभियान में और होम रूल सोसाइटी में हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे भारतीय राष्ट्रवादियों के साथ वे जुड़ीं। उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी गतिविधियों को जारी रखा। यहां तक ​​कि अमीर ब्रिटिश समर्थक वकील रुस्तम कामा के साथ अपनी शादी की कीमत पर भी वे भारतीय आजादी के प्रति समर्पित रहीं। 

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ब्रिटिश सरकार ने लगाई रोक
उनकी राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण ही ब्रिटिश सरकार ने मैडम कामा को भारत लौटने की अनुमति नहीं दी। इसके बाद वे पेरिस चली गईं। वहां भी उन्होंने भारतीय प्रवासी राष्ट्रवादियों के साथ पेरिस इंडियन सोसाइटी की स्थापना की और काम जारी रखा। उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा के नाम पर मदन की तलवार नामक प्रकाशन शुरू किया। जिन्हें ब्रिटिश सेना के अधिकारी सर विलियम वायली की हत्या के लिए ब्रिटेन ने मार डाला गया था। इसके बाद ब्रिटेन ने फ्रांस से कामा को भारत प्रत्यर्पित करने का अनुरोध किया लेकिन फ्रांस ने इनकार कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने भारत में उनकी संपत्ति को जब्त कर लिया।

रूस ने कामा को बुलाया 
इन सबके बीच सोवियत संघ में बसने के लिए कामा को आमंत्रित किया। कामा ने 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में पहली बार विदेशी भूमि पर भारतीय तिरंगा फहराया। उन्होंने महिलाओं के लिए मतदान के अधिकार की मांग करते हुए मताधिकार आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और फ्रांस सहयोगी बन गए और बाद में पेरिस से कामा को गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया गया। उन्होंने कई साल विभिन्न यूरोपीय देशों में बिताए और गंभीर रूप से बीमार होने के बाद उसे भारत लौटने की अनुमति दी गई। बंबई आने बाद 74 वर्ष की आयु में कामा का निधन हो गया। उन्हें भारतीय क्रांति की जननी के रूप में भी जाना जाता था।

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