वैदिक ज्योतिष में 9 ग्रह, 12 राशियां और 12 भावों को मिलाकर जन्म कुंडली बनाई जाती है। कुंडली के 12 भावों में सभी का अलग-अलग नाम और महत्व होता है।
उज्जैन. किसी भी कुंडली का फलादेश करने में लग्न के बाद सबसे अधिक महत्व त्रिकोण स्थानों को दिया जाता है। कुंडली का 5वां और 9वां भाव त्रिकोण कहलाता है। लग्न को भी त्रिकोण भाव ही माना जाता है। यदि लग्न, पंचम और नवम स्थान को मिलाते हुए एक रेखा खींची जाए तो एक त्रिकोण बनता है। इसलिए ये स्थान त्रिकोण कहलाते हैं। ये सबसे शुभ स्थान माने जाते हैं। लग्न से ज्यादा शुभ पंचम और पंचम से ज्यादा शुभ नवम स्थान होता है। पंचम और नवम त्रिकोण स्थान में यदि कोई अशुभ ग्रह भी बैठ जाए तो वह अपनी मूल प्रकृति से हटकर शुभ फल देने लगता है। त्रिकोण स्थानों के स्वामी यदि बलवान हैं तो कुंडली के कई दोष कम कर देते हैं।
क्या होता है त्रिकोण भावों का स्वभाव
1. लग्न भाव- जैसा कि ऊपर बताया लग्न स्थान को पहला त्रिकोण माना जाता है। लग्न से जातक की शारीरिक बनावट, रंग-रूप, स्वभाव, प्रकृति, गुण-धर्म आदि के बारे में समस्त जानकारी मिलती है।
2. पंचम भाव- पंचम भाव दूसरा त्रिकोण होता है। यह लग्न से ज्यादा शुभ होता है। पंचम भाव से व्यक्ति की संतान और शिक्षा की स्थिति देखी जाती है। साथ ही उसके पूर्व जन्म के कर्मों को भी इस भाव से पता किया जा सकता है। मंत्रों की सिद्धि, गुप्त विद्याओं आदि का अध्ययन भी इस भाव से किया जाता है।
3. नवम भाव- तीसरा त्रिकोण भाव होता है नवम भाव। यह पंचम भाव से अधिक शुभ होता है। यह भाग्य भाव होता है। इससे व्यक्ति की किस्मत के सितारों की जानकारी प्राप्त की जाती है। इस भाव से पिता, पितृ और पितृ दोष के बारे में भी पता लगाया जाता है। इस भाव से व्यक्ति के सत्कर्म, धार्मिक प्रवृत्ति आदि भी ज्ञात की जाती है।
त्रिकोण स्थानों से बनने वाले योग
1. विपरीत राजयोग- त्रिक स्थानों के स्वामी त्रिक स्थानों में हों या युति अथवा दृष्टि संबंध बनाते हों तो विपरीत राजयोग बनता है। इस योग में व्यक्ति महाराजाओं के समान सुख प्राप्त करता है।
2. केंद्र त्रिकोण राजयोग- कुंडली में जब लग्नेश का संबंध केंद्र या त्रिकोण भाव के स्वामियों से होता है तो यह केंद्र त्रिकोण संबंध कहलाता है। केंद्र त्रिकोण में त्रिकोण लक्ष्मी का व केंद्र विष्णु का स्वरूप माना गया है। यह योग जिस व्यक्ति की कुंडली में हो वह बहुत भाग्यशाली होता है। जातक को समस्त प्रकार के सुख, सम्मान, धन और भोग देता है।
3. बुध या शुक्र कलानिधि योग- कुंडली में द्वितीय अथवा पंचम भाव में गुरु के साथ बुध या शुक्र की युति होने पर कलानिधि योग बनता है। गुरु द्वितीय अथवा पंचम में हो और शुक्र या बुध उसे देख रहे हों तब भी कलानिधि योग का निर्माण होता है। यह योग राजयोग कहलाता है। जिस व्यक्ति की कुंडली में यह योग बनता है वह कलाओं में निपुण होता है। जातक राजनीति में सफल होता है।
4. अमारक योग- सप्तम भाव का स्वामी नवम में और नवम का स्वामी सप्तम में हो तो अमारक योग बनता है। इस योग में सप्तमेश एवं नवमेश दोनों का बलवान होना जरूरी होता है। इस राजयोग वाले व्यक्ति का विवाह के बाद जबर्दस्त भाग्योदय होता है।
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