रीसर्चस ने दलदली भूमि से दो प्रकार के ‘प्लास्टिक खाने वाले’ जीवाणुओं का पता लगाया है। प्रदूषण को रोकने में मदद करेंगे यह जीवाणु।
नई दिल्ली: रीसर्चस ने ग्रेटर नोएडा स्थित दलदली भूमि से दो प्रकार के ‘प्लास्टिक खाने वाले’ जीवाणुओं का पता लगाया है। यह खोज दुनियाभर में प्लास्टिक कचरे के पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकती है। ग्रेटर नोएडा के शिव नाडर विश्वविद्यालय के रीसर्चस द्वारा खोजे गए इन जीवाणुओं में पॉलिस्टरीन के विघटन की क्षमता है। पॉलिस्टरीन एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक के सामान जैसे डिस्पोजेबल कप, प्लेट, खिलौने, पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली सामग्री आदि को बनाने में इस्तेमाल होने वाला प्रमुख घटक है।
लंबे समय तक पर्यावरण में रहती है प्लास्टिक
जीवाणु के ये दो प्रकार हैं एक्सिगुओबैक्टीरियम साइबीरिकम जीवाणु डीआर11 और एक्सिगुओबैक्टीरियम अनडेइ जीवाणु डीआर14 हैं। इनकी पहचान विश्वविद्यालय से लगी दलदली भूमि में की गई। रॉयल सोसाइटी ऑफ कमेस्ट्री (आरएससी) एडवांसेज नाम के जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक अपने उच्च आणविक भार और लंबी कड़ी वाली पॉलीमर संरचना की वजह से पॉलिस्टरीन अपक्षयन प्रतिरोधी होता है। यही वजह है कि यह पर्यावरण में लंबे समय तक बना रहता है।
प्रदूषण को रोकने में मदद करेंगे जीवाणु
शोधकर्ताओं ने अध्ययन में कहा कि विभिन्न क्षेत्रों में पॉलिस्टरीन का उत्पादन और खपत पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और कचरा प्रबंधन की समस्या भी पैदा करता है। विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर रिचा प्रियदर्शिनी ने कहा, “हमारे आंकड़े इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि बैक्टीरियम एक्सिगुओबैक्टीरियम पॉलिस्टरीन के अपक्षयन में सक्षम हैं और प्लास्टिक से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।”
देश में प्रतिवर्ष 1.65 करोड़ मीट्रिक टन प्लास्टिक की खपत
प्रियदर्शिनी ने कहा, “दलदली भूमि में सूक्ष्मजीवी विविधता भरपूर मिलती है लेकिन अपेक्षाकृत इनकी खोज कम होती है। इसलिए अनुप्रयोगों का इस्तेमाल कर इन जीवाणुओं को अलग करने के लिए आदर्श आधार देती है।” एक कारोबारी अनुमान के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष 1.65 करोड़ मीट्रिक टन प्लास्टिक की खपत होती है।
(यह खबर समाचार एजेंसी भाषा की है, एशियानेट हिंदी टीम ने सिर्फ हेडलाइन में बदलाव किया है।)