Big Tech Debate: क्या सोशल मीडिया कंपनियों की मनमानी लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान पहुंचा रहा

सोशल मीडिया कंपनियों की मनमानी पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन की प्रतिक्रिया सर्वाधिक चर्चा में है। मैक्राॅन की यह प्रतिक्रिया तब आई थी जब ट्विटर और फेसबुक ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अपने प्लेटफार्मों से प्रतिबंधित कर दिया था। फ्रांस के राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं ऐसे लोकतंत्र में नहीं रहना चाहता जहां महत्वपूर्ण निर्णय एक निजी खिलाड़ी द्वारा तय किया जाता है।

Asianet News Hindi | Published : Jun 2, 2021 9:22 AM IST

अखिलेश मिश्र
दुनिया भर में सार्वजिनक बहस को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाने वाले तकनीक और सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका पर हाल के दिनों में नए सिरे से चर्चा शुरू हो गई है। भारत में भी इनकी भूमिका पर चर्चा तेज हुई है जबसे भारत सरकार ने नए सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियम लागू किए हैं। 
सोशल मीडिया कंपनियों की मनमानी पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन की प्रतिक्रिया सर्वाधिक चर्चा में है। मैक्राॅन की यह प्रतिक्रिया तब आई थी जब ट्विटर और फेसबुक ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अपने प्लेटफार्मों से प्रतिबंधित कर दिया था। फ्रांस के राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं ऐसे लोकतंत्र में नहीं रहना चाहता जहां महत्वपूर्ण निर्णय एक निजी खिलाड़ी द्वारा तय किया जाता है। मैं चाहता हूं कि सोशल प्लेटफार्म के कानून आपके चुने हुए प्रतिनिधि, लोकतांत्रिक व्यवस्था या चुनी हुई सरकार तय करे या अनुमोदित हो। फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष के बयान ने बहस को एक नई लाइन दी। 
हालांकि, इस बहस के मूल में सोशल मीडिया कंपनियों का तर्क है कि वे केवल मध्यस्थ हैं, जो उपयोगकर्ताओं को राजनीतिक या अन्य प्रकार के सेंसरशिप के डर के बिना अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं। इसलिए, इस वास्तविकता को पहचानने के लिए इन सोशल मीडिया कंपनियों के लिए विशेष व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।
उनके तर्क तब सच थे जब ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पहली बार शुरू हुए थे। लेकिन जैसे-जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खुद विकसित हुए हैं, वैसे-वैसे उनकी नीतियों को लागू करने और सामुदायिक दिशानिर्देशों को भी लागू किया गया है। सवाल यह कि डेढ़ दशक से अधिक समय से अस्तित्व के बाद क्या प्लेटफॉर्म अभी भी केवल बिचैलिए हैं, या मध्यस्थ सुरक्षा की आड़ में, प्लेटफॉर्म वास्तव में किसी और चीज में बदल गए हैं? कुछ परिदृश्यों पर विचार करें, खासकर जब से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अब वैश्विक प्रवचन के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण माध्यम हैं।

सोशल मीडिया पोस्ट को हटाना

क्या एक निजी खिलाड़ी को दुनिया के हर देश के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानदंड तय करने का निरंकुश अधिकार होना चाहिए? एक देश के सांस्कृतिक मानदंडों को दूसरे देश में आयात या लागू क्यों किया जाना चाहिए? साथ ही, जांचकर्ता कौन होगा और विवादित पद के लिए निर्णायक कौन होगा? अगर हर भूमिका एक निजी कंपनी के बेदाग, गैर-जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा निभाई जा रही है, तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के बारे में क्या? गलत निर्णय के मामले में, अपीलीय प्राधिकारी कौन है - वही सोशल मीडिया कंपनी के अधिकारी? फिर शक्तियों का पृथक्करण कहां है?
ये केवल सैद्धांतिक प्रश्न नहीं हैं, बल्कि बहुत व्यावहारिक सवाल हैं क्योंकि कई उदाहरण पहले ही स्थापित हो चुके हैं। यूं कहें तो सोशल मीडिया कंपनियों के अधिकारियों की राजनीतिक विचारधारा और यह एक विशेष दृष्टिकोण को कुचलने के लिए पूर्ण शक्ति का एक भयावह अतीत है।

राष्ट्र से बड़ी तो नहीं निजी संस्थाएं?

भारत में हालिया ट्वीटर का मामला वर्तमान बहस में प्रासंगिक है। देश में 25 मई 2021 को लागू हुए नए आईटी नियम के अनुसार ट्वीटर पर भारत में एक शिकायत निवारण अधिकारी को नियुक्त करने के साथ एक तंत्र विकसित करना था। इसके अतिरिक्त एक मुख्य अनुपालन अधिकारी और एक नोडल अधिकारी को नामित करना भी अनिवार्य है। दूसरे सभी सोशल मीडिया कंपनियों ने नियमों का पालन किया है लेकिन ट्विटर ने अब तक ऐसा करने से इनकार कर दिया है। ऐसे में यदि किसी यूजर को ट्विटर की कार्रवाइयों से कोई शिकायत है या यदि कोई उपयोगकर्ता अपमानजनक ट्वीट या उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत दर्ज करना चाहता है तो उपयोगकर्ता के पास ऐसे अनजान और नामहीन लोगों से निपटने के अलावा कोई विकल्प नहीं है जो मनमाने ढंग से लागू की गई अपारदर्शी नीतियों के पीछे काम करते हैं, और अज्ञात स्थानों पर बैठे हैं। किसी भी निवारण प्रक्रिया की आधारशिला यह है कि यह पारदर्शी हो, स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य नियमों पर आधारित हो, विवाद में सभी पक्षों को सुनने का विकल्प हो और फैसले से असंतुष्ट होने पर उचित जगह अपील करने का आॅप्शन हो। लेकिन अभी तक ट्वीटर ने ऐसे किसी भी नियमों या मानदंडों का पालन नहीं किया। हालांकि, सरकार के नए आईटी नियम अपने बहु-स्तरीय निवारण तंत्र के साथ इन सभी विसंगति को दूर करने में सक्षम हैं। एक ऐसे व्यक्ति पर विचार करें जिसे स्थानीय जिला प्रशासकों द्वारा इस बहाने राजनीतिक भाषण देने से प्रतिबंधित कर दिया गया है कि उसके भाषण क्षेत्र में शांति भंग कर रहे हैं। न्यायिक तंत्र सुनिश्चित करता है कि ऐसे व्यक्ति को हर प्रकार से रोका जाए ताकि पीड़ित को न्याय मिल सके। लेकिन ऐसी स्थिति में ट्वीटर की व्यवस्था पर विचार करें तो स्पष्ट है कि उसके पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। ट्वीटर के पास ऐसे मामले में निर्णय लेने वाले न्यायिक रूप से प्रशिक्षित दिमाग या जवाबदेह लोक सेवक नहीं हैं, बल्कि पूरी तरह से निजी व्यक्ति हैं जो केवल अपने मासिक वेतन-चेक के प्रति जवाबदेह हैं। अब राजनीतिक मामलों में इस दृष्टिकोण पर देखे तो ट्वीटर किसी तीसरे देश के राजनीतिक मामलों और राजनीतिक विमर्श में जबरदस्त हस्तक्षेप का एक अनियंत्रित क्षेत्र है। सिलिकॉन वैली में बैठा एक व्यक्ति यह तय करता है कि भारत या फ्रांस या ऑस्ट्रेलिया में किसी व्यक्ति के पास अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक मंच होना चाहिए या नहीं?
एक सवाल पूछा जा सकता है कि ट्विटर, या अन्य सोशल मीडिया कंपनियां ही एकमात्र मंच नहीं हैं तो उन्हें इतना महत्व क्यों दिया जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सोशल मीडिया कंपनियां सार्वजनिक सामान होने के लाभों का दावा करती हैं, और यही कारण है कि वे सुरक्षित क्षेत्र संरक्षण का आनंद लेती हैं जो किसी अन्य निजी संगठनों को नहीं दिया गया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता क्यों हो?

व्हाट्सएप के साथ भारत में बड़ा मामला सामने आया है जिसमें भारत सरकार ने किसी मैसेज के पहले सेंडर या बनाने वाले के बारे में सूचना सुरक्षित रखने और अपराध करने की स्थिति में उपलब्ध कराने को कहा गया था ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा न उत्पन्न हो सके। राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला होने के बाद भी व्हाट्सएप ने अपने प्लेटफॉर्म पर बातचीत की एन्क्रिप्टेड प्रकृति पर पूरी बहस को घुमाने की कोशिश की है और इस प्रकार तर्क दिया है कि यदि पहले प्रवर्तक का पता लगाया जाता है तो यूजर की गोपनीयता का उल्लंघन हो जाएगा। एन्क्रिप्शन एकमात्र ऐसी तकनीक नहीं है जिसके माध्यम से यूजर चैट की गोपनीयता को बनाए रखा जा सकता है। किसी भी मामले में, यह स्पष्ट होना चाहिए कि एक ही समय में कानून के साथ सहयोग करते हुए गोपनीयता भी कैसे बनाई रखी जाए। यह काम व्हाट्सएप का काम होना चाहिए न कि सरकार का। हालांकि, आईटी नियमों में कई ऐसे रास्ते हैं जिससे दोनों का संतुलन बना रह सकता है। फिर भी, एक प्रश्न पूछा जा सकता है - क्या मैसेज के पहले यूजर या भेजने वाले का पता लगाना वास्तव में आवश्यक है? आप किसी होने वाले आतंकी हमले की साजिश रचने के लिए व्हाट्सअप मैसेज के उपयोग के बारे में सोचे। क्या सुरक्षा एजेंसियों में ऐसी साजिश को रोकने और मानव जीवन को बचाने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? कुछ दिनों पहले ही हैदराबाद में बच्चा उठाने की अफवाहें व्हाट्सएप से फैलाई गई और नतीजा यह हुआ कि सही में हिंसा हो गया, हत्याएं हुई। ऐसी स्थितियों में अफवाहों पर लगाम लगाने, दोषियों को सजा दिलाने या पकड़ने के लिए क्या एजेंसी को यह पता लगाने की शक्ति नहीं होनी चाहिए। सुरक्षा एजेंसी को यह अधिकार क्यों नहीं हो कि वह पता लगाए कि कुटिल दिमाग कौन था जिसने सबसे पहले अफवाहें शुरू कीं? अगर आतंकी गतिविधियों वाले मैसेज या किसी अफवाह जो हिंसा का कारण बने, को इसलिए पता नहीं लगाया जाए कि व्हाट्सअप के यूजर की गोपनीयता भंग होगी तो परिणाम तो काफी भयावह हो सकते हैं। 

बड़ी और लंबी अवधि की बहस

कुछ अन्य प्रश्न हैं जिन पर दुनिया भर के नीति निर्माता पहले से ही विचार कर रहे हैं क्योंकि उनका दूरगामी परिणाम होगा। 
सबसे पहला सवाल यह कि एक ही देश में स्थित अधिकतर सोशल मीडिया कंपनियां, क्या केवल एक निजी कंपनियां है या उस देश की राष्ट्रीय शक्ति को विस्तार देने में लगी हैं या यूं कहें कि वे उस देश की कंट्रीब्यूटर हैं। क्या हम वास्तव में आश्वस्त हो सकते हैं कि ये कंपनियां उस देश के भू-राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं होंगी या नहीं किया जाएगा?
दूसरा, यदि भविष्य में किसी तानाशाही शासन या सैन्य शासन वाले देश की कोई एक सोशल मीडिया कंपनी वैश्विक स्तर पर इन कंपनियों का अधिग्रहण कर लेती है तो क्या हम उतने ही आशावादी होंगे? तब क्या हम यह भी सुनिश्चित करेंगे कि वह सोशल मीडिया कंपनी केवल एक निजी कंपनी है और उस देश की गहरी स्थिति का विस्तार नहीं है? यदि नहीं, तो क्या ऐसे सभी परिदृश्यों को पूरा करने के लिए विधानों को इस प्रकार नहीं बनाया जाना चाहिए? 
तीसरा प्रश्न, किस प्रकार की स्थितियां होंगी यदि सोशल मीडिया कंपनियां उन मुद्दों पर फोकस शुरू कर देती हैं जिन पर अलग-अलग देशों में अपने अपने तरीके और हितों को लेकर बहस हो रही है ? उदाहरण के लिए, क्या कोविड वायरस की पहचान उसके मूल देश से होनी चाहिए या नहीं? सोशल मीडिया पोस्ट में जीपीएस टैगिंग के माध्यम से दो देशों के बीच विवादित भूमि की पहचान कैसे की जानी चाहिए?
चैथा, क्या दुनिया के एक हिस्से में मानदंडों या भाषण को सांस्कृतिक संदर्भ की संवेदनशीलता पर विचार किए बिना दुनिया के अन्य हिस्सों में लागू किया जाना चाहिए?
पांचवां सवाल, चूंकि सोशल मीडिया कंपनियां निजी संस्थाएं हैं और अपने शेयरधारकों के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे में इन सोशल मीडिया के माध्यम से भू-राजनीतिक, या भू-रणनीतिक उद्देश्यों के लिए संदिग्ध धन का उपयोग कर हित साधा जा सकता है, इसलिए क्या इनको ऐसी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। हालांकि, बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका दुनिया के लिए पूरी तरह से सकारात्मक रही है। उन्होंने लाखों लोगों को सशक्त बनाया है और अभिव्यक्ति की आजादी के जरिए लोकतंत्र को मजबूत किया है। लेकिन सोशल मीडिया कंपनियां वर्ष 2000 के दशक के मध्य में अस्तित्व में आने के बाद अब शैशवाकाल से निकल चुकी हैं। ऐसे में गति को बनाए रखने के लिए नियमों को विकसित किया जाना आवश्यक है। 

(लेखक ब्लूक्राफ्ट डिजिटल फाउंडेशन, नई दिल्ली के सीईओ हैं. MyGov के डायरेक्टर (कंटेंट) रह चुके हैं.)

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