चीता धरती पर मौजूद ऐसा जीव है जो अपने शिकार के लिए गजब की फूर्ती दिखाता है। यह जीव 100 मीटर महज 3 सेकंड में भाग सकता है, जो आम कारों के पिकअप से ज्यादा है। 120 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पर भागने वाले इस जीव की अगर इंसानों से तुलना की जाए तो बहुत ज्यादा है।
नई दिल्ली. चीता धरती पर मौजूद ऐसा जीव है जो अपने शिकार के लिए गजब की फूर्ती दिखाता है। यह जीव 100 मीटर महज 3 सेकंड में भाग सकता है, जो आम कारों के पिकअप से ज्यादा है। 120 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पर भागने वाले इस जीव की अगर इंसानों से तुलना की जाए तो यह ओलंपिक चैम्पियन और दुनिया के सबसे तेज धावक उसेन बोल्ट की टॉप स्पीड 44.72 किमी/घंटा थी। इससे आप इस जीव की अद्भुत रफ्तार का अंदाजा लगा सकते हैं। बता दें मप्र के कूनो नेशनल पार्क में शनिवार को पीएम मोदी द्वारा नमीबिया से लाए गए 7 चीतों को छोड़ा गया है। इस मौके पर जानें इस जीव से जुड़े रोचक तथ्य...
रफ्तार का बादशाह लेकिन इतने समय तक
दिल्ली के वाइल्ड लाइफ पत्रकार कबीर संजय कहते हैं कि चीता अपनी रफ्तार के लिए जाना जाता है पर स्टेमिना के लिए नहीं। वे कहते हैं, चीता छोटी रेस का बादशाह है वह लंबी दूरी तक नहीं भाग सकता। उसकी यह रफ्तार 30 सेकंड या उससे कम समय तक ही बरकरार रहती है।
शिकार और रफ्तार का कनेक्शन
चीता शिकार करने में गजब की फुर्ती दिखाता है, परंतु तेजी से शिकार करने में नाकामयाब हो जाए तो शिकार को छोड़ देता है। यही वजह है कि इसके शिकार करने की सफलता दर निराशाजनक रूप से 40 से 50 प्रतिशत ही होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह शिकार के दौरान पूरी ताकत रफ्तार पर झोंक देता है और जल्दी थक जाता है। इसी वजह से कई बार दूसरे मांसाहारी जीव जैसे तेंदुआ, हायाना और जंगली कुत्ते इनके शिकार चुरा भी लेते हैं।
बड़े फेफड़े और बड़ा दिल है खासियत
वरिष्ठ पत्रकार संजय अपनी किताब में लिखते हैं कि यह जीव रफ्तार के लिए ही बना है। इसके बड़े फेफड़े और बड़ी नाक होती है, जिससे ये ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन तेजी से ले सके और बड़ा दिल ऑक्सीजन युक्त खून को पूरे शरीर में तेजी से पहुंचाने में मदद करता है। इतना ही नहीं, इनकी मुलायम रीढ़ की हड्डी, छरहरा और लचीला बदन किसी स्प्रिंग की तरह काम करता है। इनका सिर भी छोटा होता है जिससे ये हवा को चीरता हुआ आगे बढ़ता है।
पंजों की ग्रिप किसी टायर से कम नहीं
भारत सरकार के साथ मिलकर भारत में चीता की वापसी कराने वाले नमीबिया के चीता कंजर्वेशन फंड के मुताबिक चीता के पंजे दूसरी जंगली बिल्लियों से काफी अलग होते हैं। इनके तलवे कम गोलाकार होते हैं और कठोर होने की वजह से किसी गाड़ी के टायर की तरह पकड़ प्रदान करते हैं। इसकी मदद से चीता अचानक तेज रफ्तार, तीखे मोड़ लेने में सफल होता है।
रफ्तार में पूंछ की भी भूमिका
सिर से लेकर पूंछ तक हर चीज चीता को उसकी रफ्तार बरकरार रखने में मदद करती है। इसकी लंबी पूंछ एक स्टीयरिंग की तरह काम करती है, जो रफ्तार के दौर वजन को नियंत्रण में रखने और स्थिरता लाने में भी मदद करती है। चीता लगातार अपनी स्टीयरिंगनुमा पूंछ को तेज रफ्तार के दौरान घुमाता रहता है।
दूरबीन से कम नहीं हैं आंखें
रफ्तार के साथ-साथ नजर के मामले में भी चीता काफी आगे हैं। उसके मुंह से लेकर आंख तक बनी धारियां भी उसके शिकार में अहम भूमिका निभाती हैं। ये काली धारियां किसी राइफल पर लगे स्कोप की तरह ही काम करती हैं। काली धारियां जहां उसकी आंखों को सूर्य की किरणों से बचाती हैं, तो वहीं लंबी दूरी से भी शिकार पर नजर रखने में मदद करती हैं।
अक्सर इन जीवों का करते हैं शिकार
दिल्ली चिड़ियाघर के रेंज अधिकारी सौरभ वशिष्ठ कहते हैं कि आमतौर पर चीता मृग, पक्षी, खरगोश आदि को अपना पहला शिकार बनाता है। वह मवेशियों को तभी शिकार बनाता है जब वह बीमार हो, घायल हो, युवा या अनुभवहीन हो। एक वयस्क चीता हर दो से पांच दिन में शिकार करता है। वहीं हर तीन से चार दिन में उन्हें पानी पीना होता है।
मादा चीता को पसंद होता है ऐसा जीवन
सौरभ आगे बताते हैं कि मादा चीता बच्चों को जन्म देने के बाद उनकी परवरिश के लिए अलग रहना पसंद करती है। वहीं नर चीता अपने भाई-बंधुओं के साथ झुंड में रहकर शिकार करता है। नर अक्सर अपना समय सोने में व्यतीत करते हैं और दिन में गर्मी के वक्त कम ही सक्रिय रहते हैं।
ये बाघ या शेर की तरह दहाड़ते नहीं
शेर, बाघ, तेंदुए या जेगुआर की तरह चीते दहाड़ते नहीं हैं। खतरे के वक्त ही केवल ये गुर्राते हैं और आमतौर पर बिल्लियों की तरह ही भारी आवाज निकालते हैं। वशिष्ठ आगे बताते हैं कि चीता का गर्भकाल काल महज 93 दिनों को होता है और एक बार में मादा 6 शावकों को जन्म दे सकती है। इनकी औसत उम्र 10 से 12 वर्ष होती है और कैद या चिड़ियाघर में ये 17 से 20 वर्ष तक जीवित रह सकते हैं। हालांकि, संरक्षित क्षेत्र या नेशनल पार्कों में शावकों की मृत्यु दर अधिक होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि संरक्षित क्षेत्रों में सीमित क्षेत्रों के चलते दूसरे बड़े शिकारियों से टकराव की संभावनाएं ज्यादा होती हैं। ऐसी स्थिति में शुरुआती कुछ महीनों में 10 में से 1 एक शावक ही जिंदा बच पाता है।
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