कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ. संदीप घोष पर शव बेचने का आरोप लगा है। रिपोर्ट्स के अनुसार, कोलकाता में लंबे समय से मानव कंकालों का अवैध व्यापार चल रहा है। यहां से दुनिया भर के संस्थानों को इसकी सप्लाई की जाती है।
कोलकाता। कोलकाता के सरकारी आरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में महिला डॉक्टर (Kolkata Doctor Murder Case) के साथ रेप और हत्या के मामले में प्रिंसिपल रहे डॉ. संदीप घोष की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। उसपर शव बेचने का आरोप लगा है। लाश बेचकर रोटी खाने वाला संदीप घोष अकेला नहीं है। कोलकाता में इंसानी शव के काले कारोबार की पुरानी विरासत रही है।
आरजी कर मेडिकल कॉलेज के पूर्व उपाधीक्षक अख्तर अली ने इंडिया टुडे के साथ बातचीत में आरोप लगाया है कि संदीप घोष लावारिस शवों को गलत तरीके से बेचने में शामिल थे। वह उस काले धंधे में शामिल थे जिसमें कोलकाता से बांग्लादेश में बायोमेडिकल कचरे और मेडिकल सप्लाई की तस्करी की जाती थी। घोष शवों का निर्यात करता था।
कोलकाता में होता है लाश का व्यापार
NPR की एक रिपोर्ट के अनुसार कोलकाता में 200 साल से अधिक समय से मानव कंकालों का गुप्त व्यापार फल-फूल रहा है। यहां से दुनिया भर के विश्वविद्यालयों और अस्पतालों को मानव कंकाल सप्लाई किया जाता है। लाशों का काला धंधा अंग्रेजों की गुलामी के समय से चला आ रहा था। उस समय कब्र लुटेरों को कब्रिस्तानों से शवों को निकालने के लिए काम पर रखा जाता था। शवों का इस्तेमाल मेडिकल की पढ़ाई में होता था। इसे रोकने के लिए कानून बनने के बाद भी कंकालों को खोदकर बेचना आज भी जारी है। कोलकाता के कई इलाकों में दशकों से कब्रिस्तानों में अव्यवस्था है। कब्रें लंबे समय से खाली पड़ी हैं।
1985 में भारत सरकार ने लगाया था मानव अवशेषों के निर्यात पर बैन
1970 के दशक तक यह काला धंधा करोड़ों डॉलर तक पहुंच गया था। कई व्यापारी कंकाल पाने के लिए हत्या तक करा रहे थे। ऐसी शिकायतें मिलने के बाद भारत सरकार ने 16 अगस्त 1985 को मानव अवशेषों के निर्यात पर बैन लगाया था। नए कानून के कारण कई कम्पनियों ने कारोबार बंद कर दिया। कोलकाता की यंग ब्रदर्स नाम की कंपनी तब तक यह धंधा करती रही जब तक कि सरकार ने नकेल नहीं कसी।
इंसानी कंकाल का बड़ा व्यापारी था शंकर नारायण सेन
1943 में बंगाल में पड़े अकाल के दौरान कोलकाता के निर्यातक शंकर नारायण सेन ने अकाल पीड़ितों के कंकाल तैयार किए थे। उसने हजारों लोगों के कंकाल बेचे थे। चार दशक तक उसका कारोबार फलता-फूलता रहा। 1985 तक भारत इंसानी कंकालों का एकमात्र निर्यातक था। इसपर बैन लगाए जाने का अमेरिका, यूरोप और जापान के आयातकों ने विरोध किया था। वे पूरी तरह से भारत पर निर्भर थे।
भारत में क्यों फल-फल रहा इंसान की हड्डियों का बाजार?
1990 के बाद भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या में वृद्धि हुई है। इनकी संख्या 1980 के बाद से दोगुने से भी अधिक हो गई है। इससे शरीर रचना विज्ञान की पढ़ाई के लिए मानव कंकालों की मांग बढ़ी है। सरकार द्वारा 1985 में मानव अवशेषों के निर्यात पर बैन लगाने के बाद भी मानव हड्डियों का अवैध व्यापार जारी रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल करीब 20,000-25,000 मानव कंकालों की तस्करी की जाती है। अधिकतर हिस्सा अमेरिका, जापान, यूरोप और मध्य पूर्व के मेडिकल कॉलेजों में भेजा जाता है।
लावारिस लाशों पर रहती है तस्करों की नजर
शवों के काले कारोबार में सरकारी अस्पतालों के लोगों की भूमिका रहती है। आमतौर पर लावारिस लाशें यहीं लाई जाती हैं। ऐसे शवों पर तस्करों की नजर होती है जिसके लिए किसी ने दावा नहीं किया हो। नियम के अनुसार लावारिस शव का अंतिम संस्कार ठीक से हो यह सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार की ओर से इसके लिए पैसे दिए जाते हैं। जिन लोगों को ऐसे शवों का अंतिम संस्कार करने के लिए दिया जाता है उनमें से कुछ गलत काम करते हैं।