भारतीय संविधान के रक्षक कहे जाने वाले संत केशवानंद भारती का रविवार को निधन हो गया। उन्होंने 79 साल की उम्र में इडनीर मठ में अपना देह त्याग दिया। उन्हें भारतीय संविधान का रक्षक कहा जाता था। उनकी याचिका की सुनवाई के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि उसे संविधान के किसी भी संशोधन की समीक्षा का अधिकार है।
नई दिल्ली. भारतीय संविधान के रक्षक कहे जाने वाले संत केशवानंद भारती का रविवार को निधन हो गया। उन्होंने 79 साल की उम्र में इडनीर मठ में अपना देह त्याग दिया। उन्हें भारतीय संविधान का रक्षक इसलिए कहा जाता था क्योंकि संविधान में संशोधन की संसद की असीमित शक्तियों पर लगाम कसने वाला यह सिद्धांत 1973 में दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में सुनवाई करते हुए यह सिद्धांत दिया, वह याचिका केरल के संत केशवानंद भारती ने दाखिल की थी। उनकी याचिका की सुनवाई में ही सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि उसे संविधान के किसी भी संशोधन की समीक्षा का अधिकार है।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था केशवानंद भारती ने
केरल के कासरगोड़ जिले में स्थित इडनीर मठ के प्रमुख बनने के उत्तराधिकारी केशवानंद थे। केरल सरकार ने दो भूमि सुधार कानून बनाए। इसके जरिए धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन पर नियंत्रण किया जाना था। उन दोनों ही कानूनों को संविधान की नौंवी सूची में रखा गया था ताकि न्यायपालिका उसकी समीक्षा ना कर सके। साल 1970 में केशवानंद ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो ऐतिहासिक हो गया। सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच अब तक की सबसे बड़ी बैंच है। इस याचिका की 68 दिनों तक सुनवाई चली। ये भी अपने आप में रिकॉर्ड है। बता दें, इस पर फैसला 703 पन्नों में सुनाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया ये फैसला
केशवानंद भारती की याचिका पर 23 मार्च, 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। उस सिद्धांत की संसद के पास संविधान को पूरी तरह से बदलने की शक्ति है, तार-तार कर दिया गया। चीफ जस्टिस एसएम सीकरी और जस्टिस एचआर खन्ना की अगुवाई वाली 13 जजों की बेंच ने 7:6 से यह फैसला दिया था। SC ने कहा था कि 'संसद के पास संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन का अधिकार तो है, लेकिन संविधान की मूल बातों से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।' अदालत ने ये भी कहा कि संविधान के हर हिस्से को बदला जा सकता है, लेकिन उसकी न्यायिक समीक्षा होगी ताकि यह तय हो सके कि संविधान का आधार और ढांचा बरकरार है।
सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है सिद्धांत में बदलाव
जस्टिस खन्ना ने अपने फैसले में 'मूल ढांचा' वाक्या का प्रयोग किया और कहा कि 'न्यायपालिका के पास उन संवैधानिक संशोधनों और कानूनों को अमान्य करार देने की शक्ति है, जो इस सिद्धांत से मेल नहीं खाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में 'मूल ढांचे' की एक आउटलाइन भी पेश की थी। अदालत ने कहा था कि 'सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र इसका हिस्सा हैं। पीठ ने आगे आने वाली पीठों के लिए इस मुद्दे को खुला रखा कि वो चाहें तो सिद्धांत में कुछ बातों को शामिल कर सकती हैं।'
भारती का केस तब के जाने-माने वकील नानी पालकीवाला ने लड़ा था। 13 जजों की बेंच ने 11 अलग-अलग फैसले दिए थे, जिसमें से कुछ पर वह सहमत थे और कुछ पर असहमत। मगर 'मूल ढांचे' का सिद्धांत आगे चलकर कई अहम फैसलों की बुनियाद बना। कई संवैधानिक संशोधन अदालत में नहीं टिके। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, इसलिए उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।