राज्यसभा के उप सभापति ने कहा, दलबदल विरोधी कानून के मामलों में फैसला करने के लिए स्पीकर ही बेहतर मंच

राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश ने शनिवार को कहा कि दलबदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य ठहराए जाने वाली याचिकाओं का फैसला करने के लिए अध्यक्ष से बेहतर कोई मंच नहीं हो सकता 

Asianet News Hindi | Published : Feb 29, 2020 1:31 PM IST

जयपुर: राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश ने शनिवार को कहा कि दलबदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य ठहराए जाने वाली याचिकाओं का फैसला करने के लिए अध्यक्ष से बेहतर कोई मंच नहीं हो सकता । इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दल बदल की राजनीति ने देश के विकास की गति को धीमा किया है ।

हरिवंश ने यहां राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ की राजस्थान शाखा (राजस्थान विधानसभा) के तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी 'संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष की भूमिका' को संबोधित कर रहे थे। हरिवंश ने कहा, 'मेरे विचार से, दी गई परिस्थितियों में, अध्यक्ष से बेहतर कोई मंच नहीं हो सकता है। अपेक्षित परिवर्तन इस तरह की याचिका के समयबद्ध निपटान का है।'

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सिद्धांतों और नैतिकता का पालन करना होगा

उन्होंने दलबदल-विरोधी कानून में कुछ और उपाय शामिल करने का सुझाव दिया जिसमें सभी दलबदलुओं का इस्तीफा लेकर नए सिरे से चुनाव करवाना, इस तरह जनप्रतिनिधियों के पुन: चुने जाने पर उन्हें कोई मंत्री पद या लाभ का कोई पद नहीं दिया जाना, सरकार के गठन या सरकार के गिरने के मामलों में दल बदलू सदस्य का वोट नहीं गिना जाना तथा कार्यकाल के बाद चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा रखने वाले अध्यक्षों (स्पीकर) को राज्यसभा में भेजा जाना शामिल है।

उन्होंने कहा कि दूसरा बेहतर तरीका महात्मा गांधी के सिद्धांतों और नैतिकता का पालन करना होगा जिन्हें दुर्भाग्य से हमने सार्वजनिक जीवन में भुला दिया है। उन्होंने कहा कि अगर भारत सिलिकन वैली की तकनीकों से चलने वाली मौजूदा दुनिया में अलग मुकाम अलग जगह हासिल करना चाहता है तो हम सभी को गांधीवादी सिद्धांतों और मूल्यों का पालन करना चाहिए। हरिवंश ने राज्यसभा सांसद के अयोग्य ठहराए जाने के मामले को 2017 से अदालत में लंबित होने का हवाला देते हुए कहा कि यह सीट अब भी खाली है क्योंकि अदालत का आदेश लंबित है।

पूरे देश में दलबदल के 2000 मामले हुए

उन्होंने कहा कि 1967 से 72 के बीच पूरे देश में दलबदल के 2000 मामले हुए। पूरे देश में लोकसभा, विधानसभा या विधानमंडलों या केंद्र शासित प्रदेशों में 4000 कुल सदस्य हैं उसमें से लगभग 2000 ने दलबदल किया। मार्च 1971 के आखिर तक लगभग 50 प्रतिशत ने अपनी पार्टी सम्बद्धता बदली। कुछेक ने कई बार दल बदला और एक विधायक ने तो पांच दिनों में पांच बार दल बदला । शायद यही कारण था कि दसवीं अनुसूची आई शायद यही कारण था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री व कानून मंत्री ने कहा कि इस बारे में निर्णय करने का अधिकार हम स्पीकर को देंगे ।

उन्होंने कहा कि दल बदल की राजनीति ने देश के विकास की गति को अवरुद्ध किया। उन्होंने कहा ,‘राजनीति ही समाज को बनाती है। राजनीति ही समाज एवं देश की नीयती तय करती है। राजनीति ही तय करेगी कि देश कितना आगे जाएगा। विकास के जो काम 48 से 65 के बीच हुए 65 के बाद वे आगे नहीं बढ़ सके क्योंकि राजनीति इन दलबदलुओं के हाथ में थी। राजनीति पर इनका असर ज्यादा था। जो देशहित से ज्यादा स्वहित में सोचते थे।’

कानून से बचने के लिए रास्ते निकाल लिए जाते हैं

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि इस कानून के बनने के बाद भी रास्ते निकाल ही लिए जाते हैं इसलिए इसका फुलप्रूफ उपाय तो यही होगा कि चुनाव जीतने के बाद कोई भी व्यक्ति चाहे वे निर्दलीय व्यक्तिगत जीते या किसी राजनीतिक दल के नुमाइंदे के रूप में वह किसी भी कीमत पर दल बदल नहीं सके और अगर दल बदलेगा तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी। उन्होंने कहा ‘... ऐसा कोई कानून बने तो अलग बात है वरना गलियां निकली जाएंगी आप चाहे कितने भी प्रयास कर लो यह रुकने वाला नहीं है।’

जनप्रतिनिधि पार्टी के सिद्धांत की पालना नहीं करते 

राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष सीपी जोशी ने कहा कि अगर चुने हुए जनप्रतिनिधि सदन के बाहर व सदन के भीतर कहा कि अगर पार्टी के सिद्धांत की पालना नहीं करते हैं तो उनके बारे निर्णय करने का अधिकार पार्टी अध्यक्ष को होना चाहिए न कि स्पीकर को। उन्होंने कहा- अध्यक्ष की गरिमा, अध्यक्ष का निर्णय अध्यक्ष का विश्वास और अध्यक्ष के विश्वास पर विधानसभा की कार्रवाई इस पर जनता का बहुत बड़ा भरोसा होता है। किसी पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधि उसकी रीति नीति के तहत काम नहीं कर रहे तो उसका फैसला करने का अधिकार सदन चलाने वाले व्यक्ति को नहीं होना चाहिए, तटस्थ होना चाहिए। ऐसी मेरी मान्यता है।

(यह खबर समाचार एजेंसी भाषा की है, एशियानेट हिंदी टीम ने सिर्फ हेडलाइन में बदलाव किया है।)

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