
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं। विशेषकर भूमिहार समुदाय, जिसकी संख्या बिहार की कुल आबादी में करीब 2.8 से 3 प्रतिशत है, ने हमेशा सत्ता के समीकरणों में अपनी मजबूती दिखाई है। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य तक, भूमिहार नेताओं ने राजनीतिक निर्णयों और गठबंधन निर्माण में अहम योगदान दिया है। लालू-नीतीश युग में जब अन्य जातियों के नेताओं ने अपना दबदबा बनाया, तब भी भूमिहार नेताओं ने अपनी पकड़ बनाए रखी। इस फीचर में हम उन पांच प्रमुख भूमिहार नेताओं पर नजर डालते हैं, जो आज भी बिहार की राजनीति में प्रभावशाली हैं और सत्ता के समीकरण बदलने की क्षमता रखते हैं।
राजीव रंजन सिंह, जिन्हें ललन सिंह के नाम से जाना जाता है, जनता दल (यूनाइटेड) के प्रमुख नेताओं में शुमार हैं। उन्होंने वर्षों तक नीतीश कुमार के करीबी रणनीतिकार के रूप में काम किया है। जेडीयू के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने में ललन सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। उनकी राजनीतिक समझ और भूमिहार वोट बैंक पर पकड़ पार्टी को चुनावी मैदान में संतुलन बनाने में मदद करती है।
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि जेडीयू में ललन सिंह की भूमिका केवल रणनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह सत्ता के निर्णयों और उम्मीदवार चयन में भी प्रभावी हैं। उनके निर्णयों का असर सीधे भूमिहार समुदाय के वोट बैंक पर पड़ता है।
सूरजभान सिंह का जन्म 5 मार्च 1965 को पटना जिले के मोकामा में हुआ था। वह भूमिहार जाति से आते हैं, जो बिहार की राजनीति में हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। बिहार की राजनीति में भूमिहार समुदाय की संख्या कम होने के बावजूद उनका प्रभाव व्यापक है।
सूरजभान सिंह ने स्थानीय बाहुबल और परिवारिक नेटवर्क के जरिए मोकामा जैसी सीटों पर अपनी पकड़ मजबूत की है। पिछली कुछ चुनावी लड़ाइयों में उनका झुकाव बीजेपी की ओर रहा है, लेकिन वे हमेशा स्थानीय मुद्दों और वोटर बेस के अनुसार रणनीति बदलने में सक्षम रहे हैं।
गिरिराज सिंह केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और भाजपा के कट्टर हिंदुत्व समर्थक नेताओं में गिने जाते हैं। बेबाक बयानों और राष्ट्रवाद पर आधारित राजनीति के लिए उनका नाम हमेशा चर्चा में रहता है। नवादा और बेगूसराय से सांसद रहे गिरिराज सिंह भूमिहार समाज के मजबूत प्रतिनिधि माने जाते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि गिरिराज सिंह की भूमिका केवल पार्टी स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके राजनीतिक प्रभाव का असर विधानसभा चुनावों तक भी दिखाई देता है। भाजपा की कोर वोट बैंक पॉलिटिक्स में उनका योगदान अहम माना जाता है।
अनंत सिंह, जिन्हें 'छोटे सरकार' के नाम से भी जाना जाता है, मोकामा से विधायक रह चुके हैं। बाहुबली छवि के बावजूद उन्होंने जनता के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाई है। कई आपराधिक मामलों के बावजूद उनका लोकप्रियता स्तर बना हुआ है।
उनके समर्थकों में विशेष रूप से भूमिहार समाज का बड़ा हिस्सा शामिल है। लोग उन्हें 'रॉबिनहुड' की तरह देखते हैं, जो समाज के कमजोर वर्गों के लिए खड़ा रहता है। अनंत सिंह की राजनीतिक यात्रा इस बात का प्रमाण है कि बिहार में बाहुबली और राजनीति का मेल किस तरह से सियासी ताकत बन सकता है।
अखिलेश सिंह बिहार कांग्रेस से जुड़े रहे हैं और संगठनात्मक कार्यों में विशेष रुचि रखते हैं। उनका काम अक्सर पर्दे के पीछे ही रहता है, लेकिन उनकी गहरी पैठ शहरी और शिक्षित वर्ग में दिखाई देती है।
अखिलेश सिंह का राजनीतिक प्रभाव खासतौर पर रणनीति निर्माण और उम्मीदवार चयन में दिखाई देता है। संगठन के मजबूत स्तंभ के रूप में उनका योगदान कांग्रेस और अन्य गठबंधनों के लिए महत्वपूर्ण है।
भूमिहार नेता बिहार की राजनीति में केवल संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि संगठन और रणनीति की वजह से प्रभावशाली माने जाते हैं। यह समुदाय हमेशा सत्ता समीकरण में अहम भूमिका निभाता रहा है। लालू-नीतीश के युग में भी भूमिहार नेताओं ने अपनी पकड़ खोई नहीं, और आज भी ये पांच नेता किसी भी गठबंधन या चुनावी रणनीति में निर्णायक हो सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में भूमिहार नेताओं की भूमिका निर्णायक होगी। चाहे वह उम्मीदवार चयन हो या गठबंधन की रणनीति, इन नेताओं की सलाह और निर्णय का असर सीधे मतदाताओं तक पहुंचेगा। बिहार की सत्ता समीकरण में भूमिहार नेताओं की ताकत इसलिए हमेशा से महत्वपूर्ण रही है।
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