तंबाकू से सत्ता तक, जानें बिहार इलेक्शन 2025 में ‘बीड़ी’ कैसे बन गई सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा

Published : Sep 16, 2025, 05:31 PM IST
bihar chunav 2025

सार

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में बीड़ी चर्चा का बड़ा मुद्दा बन गई है। जीविका, परंपरा, राजनीति और नक्सल विरोधी रणनीति से जुड़ा यह मुद्दा चुनावी बहस को नया मोड़ दे रहा है। जानिए कैसे बिहार की सियासत में बीड़ी ने धुआँ छेड़ दिया है।

लव कुमार मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार, पटना: बिहार विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, सभी को उम्मीद थी कि बहस वही पुराने मुद्दों पर घूमेगी, रोज़गार, क़ानून-व्यवस्था, बाढ़ और जातिगत गणित। मगर इस बार न सड़कें सुर्ख़ियों में हैं, न रेल। चुनावी चर्चा का केंद्र बन गया है साधारण-सा बीड़ी का कश। अब बिहार के चुनावी अभियान में बीड़ी सुलगने लगी है। प्रधान मंत्री,नरेंद्र मोदी भी इस विवाद में शामिल हो गए हैं। सीमांत क्षेत्र पूर्णिया में सोमवार को राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की चुनावी सभा में उन्होंने विपक्षी दलों पर आरोप लगाया कि अब बिहार की तुलना बीड़ी से की जा रही है जो बिहारियों का अपमान है।

कहानी की शुरुआत बिहार से नहीं, बल्कि केरल से हुई। जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बीड़ी पर जीएसटी 40% से घटाकर सिर्फ़ 5% करने का ऐलान किया, तो यह महज़ एक कर सुधार होना चाहिए था। लेकिन केरल कांग्रेस के एक नेता ने इसे “बिहार के लिए तोहफ़ा” कह दिया। बस, यहीं से आग भड़क उठी। विपक्षी INDIA गठबंधन ने सरकार पर वोटरों को लुभाने के लिए “धुएँ के खेल” खेलने का आरोप लगा दिया।

बिहार में बीड़ी केवल तंबाकू की पत्तियाँ नहीं हैं, यह एक जीविका है, एक परंपरा है। मुंगेर, जमुई और नालंदा जैसे ज़िलों में दो लाख से ज़्यादा परिवार बीड़ी बनाने में लगे हैं। पीढ़ियों से घर-घर में महिलाएँ और बच्चे तक बीड़ी रोल करते हैं। मेहनताना दिन का 280 से 400 रुपये तक ही है, लेकिन इसकी कीमत सेहत चुकाती है—फेफड़ों की बीमारियाँ यहाँ आम हैं।

बीड़ी पीने में बिहार देश में पाँचवें नंबर पर है। बावजूद इसके, ग्रामीण घरों में यह आज भी कमाई का स्थायी जरिया है। यही नहीं, वैशाली, मुज़फ्फरपुर और समस्तीपुर के खेतों में तंबाकू की खेती खूब होती है। बड़ी कंपनियाँ गाँव-गाँव एजेंट भेजकर सीधे किसानों से पत्तियाँ खरीद लेती हैं। पश्चिमी यूपी, झारखंड और मध्यप्रदेश तक खैनी भी उतनी ही गहराई से जुड़ी है।

कहानी यहीं नहीं थमती। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बीड़ी का सबसे अहम हिस्सा—तेन्दूपत्ता—सुरक्षा की बहस तक को छू लेता है। बस्तर, सरगुजा, रायगढ़, मांडला और धार जैसे इलाक़ों में यह पत्ता आदिवासी परिवारों की जीवनरेखा है। पीढ़ियाँ जंगलों से पत्ते तोड़कर, गट्ठर बाँधकर, बेचकर गुज़ारा करती रही हैं। सरकारों ने इसे बाक़ायदा संगठित कर दिया है—वन विकास निगमों के ज़रिए बोनस और प्रोत्साहन तक दिया जाता है। छत्तीसगढ़ में ही 50 लाख से ज़्यादा पंजीकृत तेन्दूपत्ता संग्राहक हैं।

लेकिन यही कारोबार नक्सलियों की कमाई का जरिया भी रहा है। सालों तक उन्होंने इस धंधे को अपने क़ब्ज़े में रखा और आदिवासियों का शोषण करते हुए हथियार खरीदे। बड़े-बड़े नेता, चाहे कांग्रेस हों या भाजपा, इस व्यापार से अपना असर रखते आए हैं।

अब सरकार का तर्क है कि बीड़ी पर जीएसटी घटाना चुनावी चाल नहीं, बल्कि नक्सलियों की आर्थिक ताक़त काटने की रणनीति का हिस्सा है। गृह मंत्री अमित शाह की देखरेख में सहकारी समितियों के ज़रिए तेन्दूपत्ता और बीड़ी व्यापार को मज़बूत करने की योजना बनाई जा रही है, ताकि माओवादी तंत्र का गला घोंटा जा सके। लक्ष्य है मार्च 31 तक इसे ज़मीन पर उतारना। लेकिन बिहार की सियासत इस दलील से संतुष्ट नहीं। INDIA गठबंधन कहता है। कारण चाहे जो भी हो, फ़ायदा तो सीधे बिहार के वोटरों को मिल रहा है। और चुनाव से ठीक पहले इसकी टाइमिंग संयोग नहीं लगती।

तंबाकू से आजीविका, परंपरा और राजनीति, सब गुँथी हुई हैं। यही वजह है कि बीड़ी का विवाद इस बार चुनावी मैदान को सुलगाए हुए है। यह अब सिर्फ़ घोषणापत्र और रैलियों की लड़ाई नहीं होगी, बल्कि इस पर भी होगी कि “बीड़ी की कहानी” किसके हाथ में सबसे असरदार ढंग से सुनाई जाती है।

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