
पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 अपने निर्णायक मोड़ पर है। दूसरे चरण के लिए 11 नवंबर को वोटिंग होनी है और इस चरण की 122 सीटों पर मुकाबला परंपरागत मुद्दों से कहीं आगे बढ़कर जातीय पहचान के इर्द-गिर्द सिमट गया है। इस बार कई सीटों पर उम्मीदवारों की पार्टी नहीं, उनकी जाति ही राजनीतिक समीकरण तय कर रही है। हालात ऐसे हैं कि कई सीटों पर यादव बनाम यादव और मुस्लिम बनाम मुस्लिम के बीच सीधी भिड़ंत है।
चुनावी विश्लेषकों के मुताबिक इस चरण में 32 सीटों पर मुकाबला एक ही जाति के प्रत्याशियों के बीच सिमटा हुआ है। यानी वोटर को चुनाव मैदान में खड़े नेताओं में अंतर ढूंढना मुश्किल हो रहा है। उदाहरण के तौर पर...
ऐसे मुकाबलों में जीत अक्सर इस बात पर निर्भर करती है कि गांव-टोला, बिरादरी और उप-गोत्र नेटवर्क किसके पीछे एकजुट होता है।
बिहार की राजनीति का चर्चित एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण भी कई जगह टूटता दिख रहा है। कई सीटों पर महागठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों को एनडीए के यादव उम्मीदवार कड़ी टक्कर दे रहे हैं।
इसका साफ मतलब है कि जातीय गठजोड़ अब स्थायी नहीं रहा, वह क्षेत्रीय जमीन के हिसाब से बदल रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि दलों ने उम्मीदवार चयन जाति-केंद्रित डेटा देखकर किया है। स्थानीय समाज में बिरादरी प्रभाव आज भी सबसे मजबूत चुनावी फैक्टर है। पार्टी की विचारधारा से ज्यादा समुदाय और पहचान वोट को प्रभावित कर रही है। यानी इस चरण में वोटर मुद्दों से नहीं, अपनी जातीय नज़दीकी से वोट करेगा। एक बात तय है, “इस बार जीत चाहे किसी की हो… पर असली परीक्षा जातियों की ताकत की है।”
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