बिहार चुनाव 2025: टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय, कई सीटों पर खेला दिखाएंगे बागी!

Published : Sep 29, 2025, 05:31 PM IST
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सार

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती टिकट बंटवारे के बाद की बगावत है। 2020 में भी बागी उम्मीदवारों ने कई सीटों पर समीकरण बिगाड़ दिए थे। इस बार भी 20-25 सीटों पर बागियों का असर नतीजों को प्रभावित कर सकता है।

पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की आहट तेज़ हो चुकी है। चुनाव आयोग की ओर से अक्टूबर के पहले सप्ताह में चुनावी तारीखों का ऐलान होने की संभावना है। राजनीतिक दलों ने अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। लेकिन इस बार भी दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती टिकट बंटवारे के बाद पनपने वाली ‘बगावत’ होगी। कई सीटों पर बागी उम्मीदवार न केवल समीकरण बदल सकते हैं बल्कि बड़े नेताओं की जीत की गारंटी भी डगमगा सकते हैं।

2020 का अनुभव, 2025 की चिंता

पिछले विधानसभा चुनाव में भी बागियों ने कई दिग्गजों के अरमानों पर पानी फेर दिया था। पटना, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, सीवान और सहरसा जैसे इलाकों की सीटों पर बागी उम्मीदवारों ने 30 से 60 हज़ार तक वोट हासिल किए। इस वजह से बड़े दलों के उम्मीदवार मामूली अंतर से चुनाव हार गए। मीनापुर, कसबा, सिकटा, एकमा, बैकुंठपुर और महाराजगंज जैसी सीटें इसका बड़ा उदाहरण हैं। इन नतीजों ने साबित किया कि बिहार की राजनीति में बागियों की भूमिका केवल “वोट काटने” तक सीमित नहीं है, बल्कि वे असली खेल पलटने वाले खिलाड़ी साबित हो सकते हैं।

पटना और आसपास की सीटें हॉटस्पॉट

राजधानी पटना जिले की बाढ़ विधानसभा सीट पर बीजेपी के ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू और लल्लू मुखिया के नाम चर्चा में हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर टिकट बंटवारे में असंतुलन हुआ, तो यहां निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव को त्रिकोणीय बना सकते हैं। लोकहा सीट का इतिहास भी बगावत का गवाह रहा है। प्रमोद प्रियदर्शी ने 2015 में बीजेपी से और 2020 में लोजपा से चुनाव लड़ा। पिछली बार उन्होंने 30 हज़ार वोट जुटाए और जेडीयू को हार झेलनी पड़ी।

सीमांचल से लेकर मिथिलांचल तक बगावत की गूंज

पूर्णिया के कसबा क्षेत्र में 2020 में प्रदीप दास ने लोजपा के टिकट पर 60 हज़ार वोट बटोरे और यहां का पूरा समीकरण बदल दिया। इसी तरह मीनापुर में अजय कुमार ने बीजेपी से टिकट न मिलने पर लोजपा से चुनाव लड़ा और 43 हज़ार से अधिक वोट लेकर जेडीयू को पीछे धकेल दिया। सिकटा विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय दिलीप वर्मा ने दूसरा स्थान हासिल किया जबकि जेडीयू तीसरे स्थान पर सिमट गई।

महिला उम्मीदवार और नई पीढ़ी भी मैदान में

मुजफ्फरपुर की गायघाट सीट पर जेडीयू एमएलसी दिनेश सिंह की बेटी कोमल सिंह पिछली बार लोजपा की प्रत्याशी रहीं। इस बार भी उनकी दावेदारी है। वहीं पूर्व विधायक महेश्वर यादव के बेटे भी टिकट की कतार में खड़े हैं। हाल ही में एनडीए के कार्यक्रम में दोनों गुटों के बीच तीखी झड़प ने संकेत दे दिया है कि यहां बगावत लगभग तय है।

चकाई, आरा और दीघा में भी ‘आग’

चकाई से निर्दलीय जीत चुके सुमित सिंह अब जेडीयू की टिकट पर दावा ठोक रहे हैं। जबकि स्थानीय नेता संजय प्रसाद भी रेस में हैं। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि यहां टिकट वितरण के बाद हालात गरमा सकते हैं। राजधानी की दीघा और कुम्हरार सीटें भी इस बार बागियों के लिए हॉटस्पॉट मानी जा रही हैं। दोनों सीटों पर कई नाम चर्चा में हैं और असंतोष साफ झलक रहा है।

बगावत क्यों होती है?

  • टिकट बंटवारे में पारदर्शिता की कमी
  • स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की अनदेखी
  • धनबल और बाहरी दबाव की भूमिका
  • बाहरी उम्मीदवारों को टिकट मिलने पर नाराज़गी ये कारण हर चुनाव में नेताओं को बगावत के रास्ते पर धकेलते हैं।

छोटी पार्टियों का खेल

छोटी पार्टियों पर टिकट “बेचने” के आरोप भी लगते रहे हैं। कई बार पुराने नेता उम्मीद में दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं कि टिकट मिलेगा। जब निराशा हाथ लगती है तो वे निर्दलीय उतर जाते हैं और वोट बंटवाते हैं। इससे बड़ी पार्टियों का समीकरण बिगड़ता है और विपक्ष को अप्रत्याशित फायदा मिल जाता है।

2025 में कितनी सीटों पर असर?

पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस बार 20 से 25 सीटों पर बागी उम्मीदवार चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। डुमरांव, करहगर, आरा, महुआ, दानापुर, दीघा और कुम्हरार जैसी सीटों पर बगावत का असर सबसे ज्यादा देखने को मिलेगा।

दलों की रणनीति पर संकट

एनडीए हो या महागठबंधन, दोनों के सामने यह चुनौती बराबर की है। दोनों गठबंधन ऐसे उम्मीदवार उतारना चाहते हैं जिनके जीतने की संभावना सबसे अधिक हो, लेकिन दावेदारों की लंबी कतार ने संतुलन बिगाड़ दिया है। टिकट वितरण के बाद असंतुष्टों का मैदान में उतरना लगभग तय है।

नतीजों पर बड़ा असर

2020 के अनुभव से यह साफ है कि कई सीटों पर जीत-हार का अंतर केवल 10 से 15 हज़ार वोट का रहा। बागियों ने ही यह अंतर पैदा किया। अगर 2025 में भी यही हाल रहा तो कई बड़े नेताओं को अपनी “पक्की जीत” को आखिरी क्षण तक लेकर संशय बना रहेगा।

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