
पटनाः बिहार की राजनीति के उन दिनों की बात है, जब काली प्रसाद पांडेय बाहुबली के नाम से जाने जाते थे। गोपालगंज के रमजीता गांव से निकले काली पांडेय का राजनीतिक सफर उतार-चढ़ावों से भरा रहा, लेकिन उनकी संघर्षशील छवि ने उन्हें बिहार के सबसे प्रभावशाली नेताओं में जगह दिलाई। 28 अक्टूबर 1946 को जन्मे काली प्रसाद पांड़ेय की छवि बिहार की राजनीति में एक ‘रॉबिनहुड’ की तरह बन गई। वह जेल से सांसद बने, विवादों के बावजूद अपनी पकड़ मजबूत रखे रहे और बिहार की बाहुबली राजनीति के एक ऐसे गुरु थे जिनका नाम हर कुख्यात बाहुबली ने आदर सहित लिया।
1984 में जब पूरा देश इंदिरा गांधी की हत्या की शोकाकुल लहर में डूबा था, तब काली प्रसाद जेल में बंद थे। उस ऐतिहासिक समय में भी उन्होंने जेल की सलाखों के पीछे से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और करिश्माई जीत हासिल की। यह जीत बिहार की राजनीति में एक मिसाल थी, जिसने उनकी छवि को पुख्ता किया। बाद में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का दामन थामा।
अपने राजनीतिक सफर में काली प्रसाद पांडे कई दलों का हिस्सा रहे, कांग्रेस, आरजेडी और अंततः लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी)। एलजेपी में उन्होंने राष्ट्रीय महासचिव और प्रवक्ता के रूप में अहम भूमिका निभाई। काली पांडे की छवि इतनी मजबूत थी कि सिवान के कुख्यात बाहुबली शहाबुद्दीन ने भी उन्हें अपना गुरु माना।
उनका नाम विवादों से भी घिरा रहा। खासतौर से 1989 में पटना जंक्शन पर नगीना राय पर बम हमले का आरोप काली प्रसाद पर लगा, पर कोर्ट में आरोप सही नहीं पाया गया। कई बाहुबली नेताओं के लिए काली पांडे ‘गुरु’ के समान थे, यह बताता है कि वे अपराध और राजनीति के बीच संतुलन साधने में एक खिलाड़ी की भूमिका निभा रहे थे।
हालांकि विवाद उनका पीछा करते रहे, पर काली प्रसाद पांडेय ने कई सामाजिक कार्य किए। उन्हें गरीबों के हितैषी के रूप में भी जाना गया। प्रचार के विपरीत वह जनता के बीच सरल और दयालु छवि के लिए भी प्रसिद्ध थे। वे कहते थे, "मैं चाहता हूं कि मेरी जिंदगी कभी आपके काम आ जाए," जो उनके लोगों के प्रति समर्पण को बयां करता है।
80 और 90 के दशक में बाहर और अंदर बिहार की राजनीति में काली पांडे की छवि ‘शेर-ए-बिहार’ और ‘बाहुबली गुरु’ के तौर पर रही। उनकी जीवनकथा पर 1987 में आयी फिल्म “प्रतिघात” भी बनी थी, जो उनके जीवन की झलक देती है। वे बिहार-उत्तर प्रदेश के उन बाहुबली नेताओं में से एक थे जिनकी मौजूदगी हर राजनीतिक बहस में अहम थी।
उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका जीवन किसी काम आए। वे बिहार की राजनीति में वर्षों तक सक्रिय रहे और जब तक उनकी सांस चली, उन्होंने अपना प्रभाव कायम रखा। उनके जाने से बिहार ने एक ऐसे नेता को खोया जो न केवल जंगल राज के दिनों में सब कुछ दिखा चुका था बल्कि बदलाव की भी मिसाल था।
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