बिहार चुनाव स्पेशलः 5 बार विधायक बनी एक सफाई कर्मचारी, दलित बेटियों का राजनीति में डंका

Published : Sep 05, 2025, 09:53 AM IST
dalit womens

सार

बिहार की दलित बेटियों ने राजनीति में नया इतिहास रचा है। सफाईकर्मी से विधायक बनीं भागीरथी देवी से लेकर देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार और सबसे युवा सांसद शांभवी चौधरी तक। यह सफर माटी से महल तक की प्रेरणादायक कहानी है।

बिहार की धरती पर एक मूक क्रांति चल रही है। वह धरती जो कभी जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के लिए जानी जाती थी, आज दलित महिला नेतृत्व की एक नई कहानी लिख रही है। माटी से महल तक का यह सफर केवल व्यक्तिगत उपलब्धियों की गाथा नहीं है, बल्कि समूचे समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत है। 800 रुपए मासिक वेतन पर सफाई का काम करने वाली भागीरथी देवी से लेकर देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार तक, बिहार की दलित बेटियों ने राजनीति में एक नई इबारत लिखी है।

भागीरथी देवी: एक सफाई कर्मचारी से पांच बार की विधायक तक

पश्चिम चंपारण के नरकटियागंज में एक महादलित परिवार में जन्मी भागीरथी देवी की कहानी किसी फिल्मी किस्से से कम नहीं है। ब्लॉक विकास कार्यालय में मात्र 800 रुपए मासिक वेतन पर सफाई कर्मचारी का काम करने वाली भागीरथी देवी आज पांच बार की विधायक हैं। 2019 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया, जो इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति की पहचान उसके काम से होती है, जाति या सामाजिक स्थिति से नहीं। भोजपुरी में अपने मुद्दे उठाने वाली भागीरथी देवी आज गरीब-दलित वर्ग की सशक्त आवाज बन गई हैं।

देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार

31 मार्च 1945 को सासाराम में जन्मी मीरा कुमार ने बिहार की दलित महिलाओं के लिए एक नया मुकाम हासिल किया। दलित नेता जगजीवन राम की बेटी होने के बावजूद उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। पहले भारतीय विदेश सेवा (IFS) में अधिकारी के रूप में काम किया, फिर राजनीति में आकर 2009 से 2014 तक देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष बनीं। मीरा कुमार का राजनीतिक सफर 1985 में बिजनौर से शुरू हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और पांच बार सांसद बनीं।

2020 में आठ दलित महिला बनीं विधायक

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में दलित महिला नेतृत्व के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ आया। 40 आरक्षित सीटों में से आठ दलित महिलाओं ने जीत दर्ज की, जो अब तक का सर्वोच्च रिकॉर्ड है। इनमें प्रमुख नाम हैं…

  1. भागीरथी देवी (नरकटियागंज)
  2. वीणा भारती (त्रिवेणीगंज)
  3. कविता देवी (कोंढ़ा)
  4. प्रतिमा कुमारी (राजपाकड़)
  5. डॉ निक्की हेबरम (कटोरिया)
  6. रेखा देवी (मसौढ़ी )
  7. संगीता कुमारी (मोहनिया)
  8. ज्योति देवी (बाराचट्टी)
  9. दीपा मांझी (इमामगंज, 2024 उपचुनाव)

 

1957 से 2020 तक का सफर

1957 के बिहार विधानसभा चुनाव में केवल तीन दलित महिलाएं चुनी गईं, सिंधिया से श्यामा कुमारी, देवघर से शैलवाला और मसौढ़ी से सरस्वती चौधरी। यह संख्या दिखाती है कि शुरुआत कितनी कमजोर थी। इसके बाद के चुनाव में ये संख्या तो बढ़ी, लेकिन इसके बाद दलित महिलाओं की भागीदारी कम होती गई और 1972 और 1980 के दशक में यह स्थिति और भी खराब हो गई, जब कोई भी दलित महिला विधायक नहीं चुनी गई। यह वह दौर था जब सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां चरम पर थीं। हालांकि धीरे-धीरे स्थिति में सुधार आया और 2020 में रिकॉर्ड आठ दलित महिला विधायकों की जीत के साथ एक नया अध्याय शुरू हुआ। अब 2025 के विधानसभा चुनाव में क्या होगा ये तो आने वाला समय बताएगा। 

नई पीढ़ी की उम्मीदें शांभवी चौधरी

2024 के लोकसभा चुनाव में लोजपा (रा) से सबसे कम उम्र की सांसद बनीं शांभवी चौधरी दलित महिला नेतृत्व का नया प्रतीक बन सकती हैं। शांभवी समस्तीपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची है। वो सीएम नीतीश कुमार के करीबी मंत्री आशिक चौधरी की बेटी और समाजसेवक एवं पूर्व आईपीएस अधिकारी दिवंगत किशोर कुणाल की बहु हैं। उनकी सफलता दिखाती है कि युवा पीढ़ी की दलित महिलाएं अधिक शिक्षित और राजनीतिक रूप से जागरूक हैं।

दलित महिलाओं का दोहरे भेदभाव से सामना

दलित महिलाओं को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, वो भी जाति और लिंग दोनों आधारों पर। पारंपरिक सामाजिक संरचना में उनकी आवाज को दबाने के प्रयास होते रहे हैं। लेकिन शिक्षा और जागरूकता के साथ वे इन बाधाओं को पार कर रही हैं। विडंबना यह है कि बिहार के राजनीतिक इतिहास में आज तक किसी भी दल ने अपना प्रदेश अध्यक्ष पद किसी महिला को नहीं दिया है। यह दिखाता है कि अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है।

शिक्षा और जागरूकता के बढ़ते प्रभाव से मिल रही सफलता

बिहार सरकार की शिक्षा नीतियों, विशेषकर लड़कियों के लिए साइकिल वितरण और प्रोत्साहन राशि योजनाओं का सकारात्मक प्रभाव दिखा है। शिक्षित दलित महिलाएं अधिक आत्मविश्वास के साथ राजनीतिक मंच पर आ रही हैं। आने वाले विधानसभा चुनावों में दलित महिला उम्मीदवारों की संख्या और भागीदारी में और वृद्धि की उम्मीद है। युवा पीढ़ी की दलित महिलाएं अधिक शिक्षित और राजनीतिक रूप से जागरूक हैं।

 

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