
पटनाः बिहार की राजनीति में परिवारवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। यह लंबे समय से सत्ता की जंग में एक रणनीति के रूप में उभरता रहा है। जब भी नेताओं को जेल, हत्या, कानूनी विवाद या अन्य राजनीतिक संकटों का सामना करना पड़ा, उन्होंने परिवार को आधार बनाकर अपनी पकड़ मजबूत की। यह प्रवृत्ति लालू प्रसाद यादव के दौर से लेकर बाहुबली नेताओं और अन्य राजनीतिक परिवारों तक साफ देखी जा सकती है।
लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री का पद सौंपा। उस समय परिवारवाद पर कड़ी बहस हुई, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह एक रणनीतिक कदम था। लालू के बच्चों का राजनीति में सक्रिय न होना भी इस निर्णय का बड़ा कारण था। बाद में जब नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया और जीतन राम मांझी के साथ उनकी खींचतान हुई, तब लालू की चाल को राजनीतिक मजबूरी और रणनीति दोनों के रूप में देखा गया।
रामविलास पासवान ने भी पूरे परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाया। उनके भाई पशुपति पारस, रामचंद्र पासवान और अगली पीढ़ी के नेता चिराग पासवान तथा प्रिंस पासवान ने पार्टी की बागडोर संभाली। बाहुबली नेताओं की राजनीति में भी परिवार की भूमिका अहम रही है। मोकामा के पूर्व विधायक अनंत सिंह की जगह उनकी पत्नी नीलम देवी ने ली। इसी तरह राजो सिंह के बेटे-बेटियाँ राजनीति में सक्रिय हैं।
तपेश्वर सिंह के बेटे अजय और अजीत सिंह की राजनीतिक विरासत भी इसी दिशा में बढ़ी। अजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी मीना सिंह सांसद बनीं और अब उनका बेटा विशाल सिंह राजनीति में सक्रिय है। अशोक महतो ने भी परिवार को राजनीति में स्थापित करने के लिए अपनी शादी टाल दी ताकि पत्नी को टिकट मिल सके। इसी तरह राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी देवी विधायक बनीं और अब राजेश खुद चुनाव की तैयारी कर रहे हैं।
कई नेताओं के मुकदमों या अन्य कारणों से चुनाव न लड़ पाने पर उनके परिवार के सदस्य ही राजनीतिक विरासत संभालते रहे।
राजनीति में परिवारवाद अब उसी तरह फैल चुका है, जैसे किसी बड़ी कंपनी या संस्था में पिता के बाद बेटा विरासत संभालता है। लगभग सभी बड़े राजनीतिक परिवारों में पिता से पुत्र, बहन से बेटी तक राजनीति का दायरा बढ़ता रहा है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बिहार में परिवारवाद केवल लालच या सत्ता का खेल नहीं है। जेल, हत्या, मुकदमों और संकटों से घिरे नेताओं के लिए परिवार ही एकमात्र भरोसेमंद आधार बनता है। वहीं जनता का समर्थन भी इसे वैधता देता है। परंतु इसकी बड़ी चुनौती यह है कि नए नेतृत्व के उभरने का रास्ता सीमित हो जाता है।
अधिकांश राजनीतिक परिवारों में अपमे परिवार के लोगों को आगे बढ़ाने प्रवृत्ति देखी जाती है, चाहे उनमें काबिलियत हो या न हो। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रीय लोक मोर्चा के उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं ने परिवारवाद से दूरी बनाए रखी है। फिर भी बिहार की राजनीति में परिवारवाद का जाल गहरा होता जा रहा है।
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