
पटनाः रामविलास पासवान का राजनीतिक जीवन विरोधाभासों और अविश्वसनीय रणनीतिक फैसलों से भरा रहा। उनकी यात्रा में ऐसे कई मोड़ आए, जहाँ उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा के लिए दशकों पुराने रिश्तों और विचारधाराओं को भी पीछे छोड़ दिया। यही बेमिसाल सियासी समझ थी, जिसने उन्हें छह प्रधानमंत्रियों के साथ सत्ता में बनाए रखा और उन्हें राजनीति में अमर बना दिया।
उनकी महत्वाकांक्षा की पहली बड़ी झलक 1986 में दिखी, जब उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर से बगावत कर दी। ठाकुर उनके मेंटर थे, जिनके साथ पासवान ने वर्षों तक काम किया था। जब लोकदल को बिहार से राज्यसभा की एक सीट मिली, तो पासवान को उम्मीद थी कि ठाकुर उन्हें वह सीट देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पासवान ने इसे अपना अपमान माना और कर्पूरी ठाकुर पर 'दलित विरोधी' होने का संगीन आरोप लगाते हुए पार्टी से विद्रोह कर दिया। यहाँ तक कि उन्होंने उन पर राजीव गांधी के इशारे पर काम करने का भी आरोप लगाया। कर्पूरी ठाकुर जैसे ईमानदारी के प्रतीक नेता पर यह आरोप लगाना एक बड़ा राजनीतिक जोखिम था। हालांकि, इस बगावत ने उन्हें पार्टी से सस्पेंड करवा दिया, लेकिन इसने यह स्पष्ट कर दिया कि पासवान की प्राथमिकता में उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाने का सपना किसी भी निजी रिश्ते या गुरु भक्ति से बड़ा था।
बिहार की राजनीति में उनका दूसरा बड़ा टकराव 1990 में लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ। जनता दल की जीत के बाद जब लालू यादव मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में थे, तो पासवान ने उन्हें रोकने की हर संभव कोशिश की। उन्हें लगा कि लालू अगर मुख्यमंत्री बन गए, तो बिहार की राजनीति में उनका कद छोटा हो जाएगा।
पासवान ने वीपी सिंह को सुझाव दिया कि मुख्यमंत्री पद के लिए दलित समुदाय से राम सुंदर दास को आगे किया जाए, जिससे सामाजिक संतुलन बनेगा। उनकी यह रणनीति लालू यादव की चतुराई के सामने असफल रही, और लालू मुख्यमंत्री बन गए। इस हार ने पासवान को बिहार की राजनीति में भारी राजनीतिक नुकसान पहुँचाया, जिसके बाद उन्हें अपनी हाजीपुर सीट पर भी लालू के संभावित बदला लेने का डर सताने लगा था।
इसके विपरीत, पासवान ने अपने करियर में सबसे बड़ा रणनीतिक छलांग तब लगाया, जब उन्होंने 1989 में वी.पी. सिंह के खेमे में शामिल होने का फैसला किया, और इसके साथ ही मंडल कमीशन को लागू करने में केंद्रीय भूमिका निभाई। यह उनके जीवन का सबसे निर्णायक कदम साबित हुआ, जिसने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला दिया।
हालांकि, उनके 'मौसम वैज्ञानिक' होने का सबसे बड़ा प्रमाण 2014 में मिला। 2002 में गुजरात दंगों के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफा देने के बाद, उन्होंने एक दशक से अधिक समय कांग्रेस (UPA) के साथ बिताया। लेकिन 2014 में, उन्होंने देश की हवा को भांपते हुए, ठीक चुनाव से पहले, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले NDA में शामिल होने का फैसला किया। यह एक ऐसा फैसला था, जो उनकी विचारधारा से परे शुद्ध रूप से राजनीतिक लाभ पर आधारित था। इस निर्णय ने सुनिश्चित किया कि भले ही देश की राजनीति बदल जाए, उनकी मंत्री पद की कुर्सी हमेशा सुरक्षित रहेगी।
खगड़िया के बाढ़ग्रस्त गांव से 12 जनपथ तक का उनका सफर एक ऐसे नेता की कहानी है, जिसने सिद्धांतों के लिए डीएसपी की नौकरी ठुकराई, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए अपने गुरु से बगावत करने और विचारधारा से समझौता करने में भी देर नहीं लगाई। पासवान की राजनीति की समझ यह थी कि बदलाव हाशिए से नहीं, बल्कि सत्ता के केंद्र से आता है, और इस केंद्र में बने रहने के लिए उन्हें जो कुछ भी करना पड़ा, उन्होंने किया।
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