
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इस बार राजनीति का पूरा नैरेटिव बदल दिया है। एनडीए ने 202 सीटें जीतकर न सिर्फ भारी बहुमत हासिल किया, बल्कि महागठबंधन के कई पारंपरिक गढ़ भी ध्वस्त कर दिए। भाजपा 89, जदयू 85, लोजपा (रा) 19, हम 5 और रलोमो 4 सीटों के साथ एनडीए ने राज्य की राजनीति में अपनी पकड़ पहले से ज्यादा मजबूत कर ली है। वहीं महागठबंधन 35 सीटों पर सिमट गया। जिसमें राजद 25, कांग्रेस 6, वाम दल 3 और IIP की एक सीट शामील है। इसके अलावा ओवेसी की AIMIM ने 5 सीटों पर जीत हासिल की। तो आखिर यह जीत इतनी बड़ी क्यों मानी जा रही है? आइए 5 प्रमुख बिंदुओं में समझते हैं…
बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों पर टिकी मानी जाती थी। लेकिन इस चुनाव में एनडीए ने 45% से अधिक वोट हासिल करते हुए विधानसभा की 83.13% सीटें जीत लीं। यह संकेत है कि अलग-अलग जातियों, वर्गों और समुदायों ने बड़े पैमाने पर एनडीए को समर्थन दिया। महागठबंधन की जातीय गोलबंदी की रणनीति इस बार बुरी तरह विफल रही।
यह नतीजा 2010 के बाद एनडीए की सबसे बड़ी जीत मानी जा रही है। उस समय गठबंधन ने 206 सीटें जीती थीं। इस बार भी पांच दलों के साथ 202 सीटों तक पहुंचना बताता है कि एनडीए ने फिर से राज्य में व्यापक जन समर्थन हासिल कर लिया है।
पिछले चुनाव में महागठबंधन ने शाहाबाद, मगध, सारण और सीवान जैसे इलाकों में मजबूत पकड़ बनाई थी। लेकिन इस बार तस्वीर पूरी तरह पलट गई। एनडीए ने न सिर्फ इन क्षेत्रों में घुसकर मुकाबला किया बल्कि कई सीटों पर महागठबंधन का साफ़-साफ़ सफाया कर दिया।
तेजस्वी यादव भले ही अंततः जीत गए, लेकिन कई चरणों में उनकी बढ़त कमजोर पड़ती रही। दूसरी तरफ कांग्रेस, माले और अन्य दलों के कई दिग्गज नेताओं को हार का सामना करना पड़ा। वीआईपी और भाकपा का खाता तक नहीं खुल पाया। यह संदेश देता है कि सिर्फ चेहरे नहीं, जनता अब प्रदर्शन और विश्वसनीयता पर वोट कर रही है।
38 जिलों में से 13 में एनडीए ने एक भी सीट विपक्ष को नहीं दी—गोपालगंज, नालंदा, शेखपुरा, भोजपुर, अरवल, सीतामढ़ी, शिवहर, दरभंगा, भागलपुर, बांका, मुंगेर, लखीसराय और खगड़िया जैसे जिलों में पूरी तरह कब्जा जमाया। वहीं 15 जिलों में महागठबंधन का खाता तक नहीं खुल सका। यह परिणाम बताता है कि एनडीए की पकड़ भूगोल और जाति दोनों से ऊपर उठकर राज्यव्यापी बन चुकी है।
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