यूं तो आपने कई प्रकार की होली के बारे में सुना होगा। लेकिन आपने कभी नहीं सुना होगा कि पत्थरों से भी खून की होली खेली जाती है। आज हम आपको राजस्थान की ऐसी जगह के बारे में बताने जा रहे हैं। जहां एक दूसरे को पत्थर मारकर होली खेली जाती है।
बांसवाड़ा. होली का त्योहार ऐसा त्योहार है। जो कहीं कहीं अनोखे तरीके से मनाया जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि ये त्योहार कहीं कहीं इतने भयानक तरीके से मनाया जाता है कि लोगों की जान तक को खतरा होता है। हालांकि इस दौरान सुरक्षा का भी पूरा ध्यान रखा जाता है। लेकिन जरा सी चूक भी बड़ी लापरवाही साबित होने में देर नहीं लगती है।
इन जिलें में मनती है पत्थर की होली
राजस्थान के वागड़, बांसवाड़ा, बाड़मेर, बारां आदि में पत्थर की होली का बहुत चलन है। हालांकि ये होली इन जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में खेली जाती है। लेकिन यह एक खतरनाक होली होती है। जिसमें एक दूसरे पर पत्थर फेंके जाते हैं। ऐसे में सामने वाला व्यक्ति भी ढाल से पत्थर का बचाव कर खुद भी दूसरे पक्ष पर पत्थर मारता है। इस प्रकार काफी देर तक एक दूसरे को पत्थर मारकर होली खेलने की परंपरा यहां बरसों से चली आ रही है। कहते हैं कि घायल होने पर जब खून जमीन पर गिरता है। तो कहा जाता है कि किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आती है।
ढोल की धुन पर चलते हैं पत्थर
पत्थर मार होली अधिकतर आदिवासी समाज के लोग खेलते हैं। जो ढोल की धुन पर पहले छोटे छोटे पत्थर चलाते हैं। फिर जैसे जैसे समय बीतता जाता है फिर बड़े पत्थर भी चलने लगते हैं। वैसे इस खेल में कुछ लोग थोड़े बहुत घायल भी हो जाते हैं। लेकिन किसी प्रकार की गंभीर अवस्था नहीं आने दी जाती है। वैसे सिर को बचाने के लिए ये पगड़ी और ढाल का उपयोग करते हैं। पत्थर मार होली जैसलमेर और अन्य स्थानों पर भी मनाई जाती है।
400 साल पुरानी परंपरा
कहा जाता है कि पत्थर से होली खेलने की परंपरा करीब 400 साल पुरानी है। राजस्थान के वागड़ जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पत्थर की होली जमकर फेमस है। एक दूसरे को पत्थर मारकर होली खेलने की इस प्रथा को राड़ के रूप में जाना जाता है। भीलुड़ा गांव में होली के दिन इस प्रकार की होली खेली जाती है। इस दिन लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं जिसे पत्थरों की राड़ भी कहा जाता है। जिसे धुलेंडी के दिन खेला जाता है।
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पहले निकलती है गैर फिर खेलते हैं पत्थर की होली
गांव में पहले गैर निकलती है। जिसमें हजारों की संख्या में ग्रामीण शामिल होते हैं। इसके बाद सभी ग्रामीण रघुनाथजी के मंदिर के पास एकत्रित होते हैं। जहां पत्थरों की राड़ खेलने की शुरुआत होती है। यहां सभी पत्थर, ढाल, गोफण आदि लेकर आते हैं। यानी एक पत्थर फेंकने का यंत्र होता है जिसे गोफण कहते हैं। दूसरी ढाल होती है जिससे किसी के द्वारा फेंके गए पत्थर से खुद का बचाव होता है। तीसरा पत्थर होता है जो दूसरे पक्ष पर फेंका जाता है। ये बड़ा ही रोमांचक होता है। जिसे देखने के लिए भी काफी संख्या में लोग पहुंचते हैं। दोनों पक्षों की टोलियां एक दूसरे से करीब 60 से 70 मीटर की दूरी पर होते हैं। ये खेल करीब तीन घंटे तक चलता है। हैरानी की बात तो यह है कि कई बार दर्शकों को भी पत्थर लगने का भय हो जाता है और वे मैदान छोड़कर भाग जाते हैं।
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