अजमेर (राजस्थान). अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह परिसर में हिंदू मंदिर होने के दावे को लेकर एक नई कानूनी याचिका दायर की गई है। इस याचिका में दावा किया गया है कि दरगाह की जमीन पर पहले एक शिव मंदिर था और वहां पूजा अर्चना होती थी। हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने यह याचिका अदालत में दायर की थी, जिसमें दावा किया गया कि दरगाह परिसर में मंदिर के मलवे के अंश भी हैं। उन्होंने कहा कि 1911 में लिखी गई एक पुस्तक का हवाला देते हुए यह साबित किया कि यहां पहले मंदिर था और इसके निर्माण में मंदिर के मलवे का इस्तेमाल हुआ था।
अदालत ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए मामले की सुनवाई की तारीख 20 दिसंबर तय की है। याचिका में यह भी दावा किया गया है कि दरगाह के पास एक जैन मंदिर भी था, जिसके अवशेष अभी भी मौजूद हो सकते हैं। इसके अलावा याचिका में यह बात भी उठाई गई है कि दरगाह परिसर में एक तहखाना या गर्भ गृह था, जहां शिवलिंग स्थापित था और पूजा होती थी।
बता दें कि अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह परिसर में शिव भगवान का मंदिर होने का दावा रिटायर्ड जज हरबिलास सारदा की की पुस्तक में है। यह पुस्तक उन्होंने 1911 में लिखी थी, जिसका टाइटल-अजमेर: हिस्टॉरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव है, जिसमें लिखा है कि दरगाह के निर्माण करते वक्त वहां पर मंदिर का मलबा मिला था, इसके अलावा दावा किया है कि वहां पर गर्भगृह और परिसर में एक जैन मंदिर की बात भी कही गई है। याचिकाकर्ता इसी पुस्तक का हवाला देते हुए कोर्ट में याचिका लगाई है। जिसमें उन्होंने किताब के मुताबिक दरगाह के अंदर एक तहखाना है, इसमें ही शिव लिंग होने का दावा है किया गया यहै।
इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने 1991 के इबादतगाहों के क़ानून का हवाला दिया, जो कहता है कि किसी भी धार्मिक स्थल की धार्मिक पहचान को बदलने का प्रयास नहीं किया जा सकता। ओवैसी ने कहा कि यह क़ानून अदालतों के लिए बाध्यकारी है और इसे लागू करना उनका कर्तव्य है। उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह के मामले अदालतों में नहीं सुने जा सकते क्योंकि यह कानून के खिलाफ है। ओवैसी ने हिंदुत्व तंज़ीमों पर आरोप लगाया कि वे क़ानून और संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।
इस बीच ख्वाजा गरीब नवाज के खादिमों ने भी इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि दरगाह का अस्तित्व हजारों साल पुराना है और यह हमेशा रहेगा। दरगाह कमेटी के वकील अशोक कुमार माथुर ने इसे 1991 के इबादतगाहों के कानून और सर्वोच्च न्यायालय के 1961 के निर्णय के खिलाफ बताया। उन्होंने कहा कि यह याचिका पूरी तरह से निराधार है और इसे खारिज किया जाना चाहिए।
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